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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टादश श्री अरनाथजिन स्तवनं. ७३१ तत्त्वप्रगट कर्य, ते प्रभुनी प्रभुता, शुद्धज्ञायकता, शुद्धरमणता, शुद्धानुभवता, अपौगलिकता, असंगता, अयोगिता, सकल प्रदेश निरावरणता, प्रागूभावी शुझसत्ताभोग्यता, तेहने रंगें जे रंगाणा छे, ते साधक सम्यग्दृष्टि, देशविरति, सर्वविरतिनी अंतरंग शक्ति तत्त्वप्राग्भाव करवानी साधक कारकता, साधक कर्तापणुं, परमसंवर पूर्वक परम सकामनिर्जरा रूप शक्ति, विकस्वर थवे, प्रगट थवे, ते शक्तियी सर्वकर्म विगम थवे, सर्व आत्मिक धर्मने प्रगटवे करी, परमात्मा देवमांहे चंद्रमा समान श्रीनिष्पन्न परमेश्वर तेहनो जे आनंद, अव्याबाध, शिव, अचल, अरुज, अविनाशी, तेहy जे अक्षय स्वरूप, तेहनो भोग केतां अनुभव तेनो विलासी आत्मा थाय, एटले स्वसंपदा तत्त्वता आत्मशुद्धपरिणति, तेहने सादि अनंतो काल भोगवे, अथवा देवचंद्र जे स्तुति कर्ता ते अक्षय आनंदना भोगनो विलासी थाय, माटे स्वरूपसिद्ध, अरूपी, चिद्रूप, श्रीपरमेश्वर, तेहने सेवो, ध्यावो, नमो, गावो, तेहना गुण संभारो, एहीज मोक्ष साधननुं पुष्ट निमित्त छे, ए निमित्तें उपादानकारणरूप थइने असाधारण कारणताएं चडतो मनुष्यगत्यादि अपेक्षा कारणपणे करी तत्त्वानंद रूप कार्यने करशे, ते माटे उपादानादिक त्रणे कारणनी कारणता निमित्तने अवलंबें प्रगटे, तेथी निर्दोषपणे आशंसादि दोष वर्जिने शुद्धनिमित्त ने सेवे, ते सेवनथी कर्त्तापणुं समरे अने कर्त्तापणुं समरेथी स्वकार्य करे, माटे श्रीअरनाथजीनी भक्ति ते परमाधार छे ॥ १५ ॥ इति श्री अरजिनस्तवनं ॥ १६ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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