SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादश श्रीवासुपूज्यजिन स्तवनं. ६६७ भावनिक्षेपाने अंते तदेवं भिन्नवस्तुषु विशेषतश्चित्यमानानां नामादीनां प्रधानेतरभावोदर्शितः सामान्यतः पुनश्चिंत्यमानानां सर्ववस्तुषु प्रत्येकं चतुर्णामप्यमीषां सद्भावः प्राप्यतएवेति दर्शयन्नाह ॥ अहवा वत्थुमिहाणां, नाम ठवणाय जो तयागारो॥ कारणयासेदव्वं, कज्जय वन्नं तयं भावो ॥१॥ ए गाथायें चार निक्षेपा एक वस्तुमां कह्या, तथा वळी नामादि नयनें परस्पर विवादे मिथ्यात्वीपणुं पूज्य का छे ॥ एवं विवयंति नया, मिच्छामिनिवेसओ परोप्परओ ॥ इतिवचनात् ॥ वली पूज्यनुज वचन छे जे, नामाइभेयसदत्थ, बुझिपरिणामभावओ निययं ॥ जं वत्थुअस्थिलोए, च उपज्जायं भयं सव्वं ॥ १ ॥ इति ए रीतें नामादिक चारे निक्षेप ते वस्तुना स्वपर्याय छे, एम श्रमा करवी, ए निक्षेपार्नु स्वरूप विस्तार श्रीविशेषावश्य कमां कहुं छे. तिहाथी ए गाथा लखी छे. ॥ इति प्रशस्तिः।। ॥ पंथडो निहालं रे बीजा जिन तणो रे ॥ए देषी ॥ पूजना तो कीजें रे बारमा जिनतणी रे, जसु प्रगट्यो पूज्य स्वभाव ॥ परकृतपूजा रे जे इच्छे नहीं रे, साधक कारज दाद ॥ पू० ॥ १ ॥ अर्थः--हवे बारमा श्री वासुपूज्य स्वामीनी स्तवना करे छे. हे भव्य जीवो ! तमारे जो आत्माने सुखी करवानुं मन छे, तो बारमा जिन वीतराग श्रीवासपूज्य पुरुषोत्तमनी पूजना कीजें, एटले सकलगुणनिरावरण, परमचारित्री, परमज्ञानी, For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy