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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दे० चो० बा० प्रगटतत्त्वता ध्यावतां, निजतत्त्वनो ध्याता थाय रे ॥ तत्त्वरमण एकाग्रता, पूरणतत्त्वे एह समाय रे ॥ मु० ॥ ८॥ अर्थः--तेहीज भावना कहे छे. के आत्माने पोतानी जे संपदा तेतो कर्म आवृत्त छे, ते भासनमां आववी दुर्लभ छे. अने निष्पन्न परमेश्वरनी तत्त्वता तो प्रगट छे, ते श्रुतोपयोगें भासनमां आवे, ते माटे प्रगटतत्त्वी जे श्रीअरिहंत सिझ, निरावरण आत्मसंपदा तेने ध्यावतां थकां, जीव पोतानी सत्तागत द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक तत्त्वतानो ध्याता थाय छे, द्रव्यत्व तुल्यता माटे. इति ॥ एम स्वतत्त्वने ध्यावतो तत्त्वरमण तथा तत्त्वनी अनुभूति करे, तत्त्व जे स्वगुणपर्यायरूप ते मध्ये एकाग्रता तन्मयता थाय, तेवारे ए सेवक जे श्रेयांस प्रभुनो गुणावलंबी, तेहज पूर्णतवरूप तत्त्वी थई, पूनिंदनिरावरण स्वस्वभावनी पूर्णताने पामे, पोतानी पूर्णप्रागभावी तत्त्वतामां सिझ बुझ थाय. एहज मोक्षनो उपाय छे. इहाँ भावना कहे छे, के अनादि मिथ्यात्व असंयम कषाययोगहेतुपरिणति गृहीतकर्मविपाक क्वाथ्यमान विसंस्थूलात्मशक्तिमंतने अनेकांत शुद्धात्मस्वरूपनुं श्रवण करवू ते पण दुर्लभ छे, ते जीवने श्रीजिनसेवनथी, जिननुं स्वरूप ओलखाय. तेथी स्वरूपरुचि उपजे. पछी स्वधर्मपणा माटे रुचिवंत जीव ते उद्यमें वर्त्ततो आत्मधर्म निपजावें, अनुक्रमें निर्विकल्प समाधि भजी, शुझात्म पूर्णता पामे. एहीज मोक्षमार्ग छे ।। ८॥ इति अष्टम गाथार्थः ॥ १२२ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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