SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवम श्री सुविधिनाथजिन स्तवनं. ६४१ पुरिसेण अभहापरिणेसणे उवमाणविज्झति अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थी सेणं सद्देणं रूवेणं गंधेणं फासेणं इति आचारांगोक्तं " तथा शुस्वसत्ता स्वरूपी, अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, अनंत स्वरूपकर्ता, स्वरूपभोक्ता, स्वरूपपरिणामी, असंख्यप्रदेशी, प्रतिप्रदेशे अनंतपर्यायी नित्यानित्यादि अनंतस्वभावी, स्वकीयकारकचक्रपरिणामीरूप माहारो स्वभाव, ते सदा निरंतर मने सांभरो, भासनमां रहो, वासना, प्रतीत, भासन, ज्ञान, चरण, तेमाहे रमणध्यान तेहज स्वभावमां तन्मयता धरो. ए मनोरथ सदा माहरो छे, साधकमा साधक रीतें सिद्धावस्थायें सिद्धरीते सदा रहेजो ए अभिलाष छे ॥ ५ ॥ इति ॥ प्रभुमुद्रानो योग, प्रमु प्रभुता लखे हो लाल ॥०॥ द्रव्यतणेसाधर्म्य स्वसंपत्ति ओलखे होलाल॥स्व०॥ ओलखतां बहुमान,सहित रुचि पण वधे होलाल॥स. रुचि अनुयायी वीर्य, चरणधारा सधे हो लाल ॥च०॥६॥ अर्थः--इहां कोई पूछे जे तुं ताहरा आत्मधर्मनो रुचिवंत थयो, तेवारें प्रभुजीनुं शुं काम छे ? तेने उत्तर जे, आत्मस्वभाव विसरी, परभावरंगी थइ, ए माहारो आत्मा शरीरसंगी, व्यासंगी, अनंगी, कुलिंगी, तथा लिंगीपणे ममतालिंगी थइ रह्यो छे. स्वसत्ता धर्म विसरी गयो छे, ते हवे अनंतज्ञानी, परम अमोही, प्रभुनी मुद्रा, थापनानिक्षेपरूप तेहनो योग मले, तेवारें अनंतगुण रूप, सकल ज्ञायक, शुद्धात्मरूप एवी श्रीप्रभुनी प्रभुता तेने लखे, केतां ओलखे, ते ओलख्या 81 For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy