SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दे० चौ. बा. mmmmm तुम प्रभु जाणगरीति,सर्वजग देखता होलाल॥स०॥ निजसत्तायें शुद्ध, सहुने लेखता हो लाल ॥स०॥ परपरिणति अद्वेष, पणे उवेखता हो लाल ॥१०॥ भोग्यपणे निजशक्ति, अनंत गवेखता हो लाल ॥ अ०॥२॥ अर्थः-वली हे प्रभुजी ! तुमें जगत्पडात्मक तेने केवलज्ञान, तथा केवलदर्शने करी देखो छो, पण जाणंग रीतें एटले राग द्वेष रहित जे एक आत्मानो जाणंग गुण छे, तेथी सर्वभाव जाणो छो, परंतु तेमां शुभपरिणामी वस्तुना ग्राहक नथी, अने अशुभपरिणामी वस्तुना द्वेषी नथी, यथार्थ रीतें जगत्ना जाण छो, कापणं, भोक्तापर्धू, ग्राहकपणुं स्वामिपणुं एटलां वानां टालीने अहंबुद्धि रहित सर्वभावना जाणंग छो, वली हे प्रभुजी ! तुमें केहवा छो ? जे सर्वद्रव्यने पोताना सत्ताधर्मे शुद्ध, निर्दोष, निःसंग लेखो छो, एटले पंचास्तिकायमां त्रण अस्तिकाय तो परसंग विना छे, अने पुद्गलनु संयोगीपणुं ते भेदसंघातधर्म छे, पण कर्त्तापणे नथी, जातें स्वसत्ताने लोपतो नथी, अने जीवने यद्यपि अनादि विभाव छे, परंतु सत्तारूपें मूलधर्मेज छे, ते प्रभुजी ! तुमें जीवपणुं मूलसत्तायेंज लेखवो छो, तेमां परपरिणति भावअशुद्धता, ज्ञानावरणादि कर्म, कामक्रोधादिक सर्वने अद्वेषपणे आत्मधर्मथी मिन्न माटे उवेखो छो तेनो आदर करता नयी द्वेषे जे तजे, तेने त्याग न कहिये, समता माटे त्याग वर्णव्यो छे, केम के समता सामायिक छे, द्वेषीपणुं तो परपरिणति छे. वली हे प्रभु ! For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy