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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दे० चो० बा० नो धर्म छे, तथा शुद्ध कहेतां निर्दोष स्याद्वाद कहेतां अनंतधर्मात्मक निज कहेता पोतानो, भाव कहेतां धर्म, अनंत ज्ञान दर्शनाधिक, तेहना जे भोगी आस्वादी एटले स्वभोग्यना जे भोगी थया, ते परभाव जे रागद्वेषादिक अथवा पुद्गलवर्णादिक, तेहने निष्पन्नपरमात्मा केम चाखे कहेतां आस्वादे ? माटे परमात्मा ते परभावने चाखे नहीं, स्वरूपभोगीज होय ॥७॥ इति ताहरी शुद्धता भास आश्चर्यथी, उपजे रुचि तेणें तत्त्व ईहे ॥ रंगी थयो दोषथी उभग्यो, दोषत्यागे ढले तत्त्व लोहे ॥ अ०॥ ८॥ अर्थः--हवे साधन धर्म कहे छे. तिहां श्रीसुमतिनाथ पोतें मुक्त थइ कृत कृत्य थया, ते परजीवनी मुक्तिना कर्ता नहीं, तो शा वास्ते स्तवो छो ? नमो छो ? त्यां कहे छे, जे ताहेरी कहेतां हे प्रभु ! तुमारी शुद्धता, निःकर्मता, अनंतगुण प्रगटता, तेहनुं जेवारे भासन कहेतां जाणपणुं थाय, ते जेम जेम गुणनी घोषणा करे, तेम तेम गुणर्नु भासन थाय, तेथी आश्चर्यता उपजे, जे अहो प्रभुनुं ज्ञान ! त्रण लोकगत षद्रव्य त्रण काल परावृत्ति सहित एक समये जाणे, तेमज अहो प्रभुनुं दर्शन ! अहो प्रभुनु चारित्र ! सकल पुद्गल अभोगी ! अहो परमानंद ! इत्यादिक आश्चर्यथी आश्चर्य उपजे, तेथी पोताने तेहवी परमात्मा दशा निपजाववानी रुचि उपजे, ईहा उपजे. पछी ते मोक्षरुचि जीव विचारे जे केबारें माहारो For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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