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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८२ दे० चौ० बा० स्वस्वरूप एकत्वता, साधे पूर्णानंद हो मित ॥ रमे भोगवे आतमा, रत्नत्रयी गुणवृंद हो मिन्त ॥ क्युं० ॥ ८ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थः-- ते जेवारे स्वस्वरूप एकाग्रता ज्ञान, दर्शन, चारिरूप ग्रहे, तेवारे परिणामिक परमतच्चने विषे एकत्वता शुद्धस्वरूपरमण, शुद्धस्वरूपभोगी थाय, तेथी सधे कहेतां निपजे, पूर्णानंद कहेतां संपूर्ण, आत्यंतिक, एकांतिक, अनंतातिशय, अबाधक, केवलनिराबाध, स्वाधीन आत्मसुख निपजे, पछी ए आत्मा पोतानी रत्नत्रयी आदिक गुणवृंदने विषे रमे, तेहनेज भोगवे, तन्मय, तद्विलासी, स्वभावआनंदी थको रहे, सादि अनंतोकाल, स्वपरिणामिक प्रगटपणे वर्ते ॥ ८ ॥ इति अष्टम गाथार्थः ॥ अभिनंदन अवलंबनें, परमानंद विलास हो मित्त ॥ देवचंद्र प्रभु सेवना, करी अनुभव अभ्यास हो मित्त ॥ क्युं० ॥ ९ ॥ अर्थः- ए रीतें श्रीअभिनंदन प्रभुने अवलंबनें परमानंदनो विलास थाय, सर्वदेवमांहे चंद्रमा समान जे अरिहंत देव, तेहनी सेवना, अथवा स्तुतिकर्त्तानुं नाम पण देवचंद्र तेमाटे पोताने संबोधन हे देवचंद्रप्रभु ! तमारी सेवना करे, पण अनुभवना अभ्यासयी एटले अनुभवयुक्त करे. एहीज आत्मा निपजाववानुं परम कारण छे, माटे एहने सेवो, आदरो ॥ ९ ॥ इति ॥ ३६ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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