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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७८. दे चो०. बा० पोताना गुणपर्यायनी प्रवर्त्ति ते भाव, एम द्रव्यादि चारनी परिणति ते वस्तुधर्म छे, माटे ते प्रभु केम मले ? ॥२॥ इति द्वितीय गाथार्थः ।। शुद्ध सरूप सनातनो, निर्मल जे निःसंग हो मित्त ॥ आत्म विभूतें परिणम्यो, न करे ते परसंग होमित्त ॥ ॥ क्यु०॥३॥ __ अर्थः-वली श्रीवीतरागदेव कहेवा छे ? शुद्ध कहेतां सर्वदोषरहित, एहवू स्वरूप जेहनुं सनातनो कहेतां नित्य छे, यद्यपि पर्यायें अनित्य छे, पण इहां कूटस्थ नित्यतायें नित्य छे, निर्मल ज्ञानावरणादि मल रहित, वली निस्संग केहेतां सर्व संग रहित, जेहनो असंख्यातप्रदेशमध्ये द्रव्यथी कोइ परमाणु मात्र रह्यो नयी, अने भावथी जेहनी परिणतिमाहे रागी द्वेषीपणे कांइ अन्य भाव नथी, एहवो निस्संग छे ते परमेश्वर, वली आत्मविभूति कहेता पोतानी शुनस्याद्वादरूप, अनंत, अज, अविनाशी, अखंड, स्वधर्मे परिणम्यो छे, एहवो जे परमेश्वर ते पर-केहेतां बीजा न्यनो संग एटले संबंध करे नहीं, एटले सत्तायें जीवद्रव्य परसंगी नथी, विभावें परसंगी थयो छे, पण जे सम्यक् रत्नत्रयी रूप साधनपणे परिणमीने शुद्धरूपे थया ते कोई रीतें परनो संग करे नहीं, तो एहवा प्रभुथी केम मलाशे ? माटे हे प्रभु ! तुमने मल्या विना मुझने सुख केम थाशे ? ॥३॥ इति तृतीय गाथार्थः ।। पण जाणुं आगम बले, मिलq तुम प्रभु साथ हो मित्त॥ प्रभु तो स्वसंपत्तिमयी, शुद्ध स्वरूपनो नाथ हो मित्त॥ क्युं ॥४॥ ३२ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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