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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७२ दे० चो० बां० द्धता निपजे, माटे तमारी सिद्धता ते माहारे साधनरूप छे; तेथी हुं जे माहरूं स्वरूप प्रगट करूं, ते उपकार तमारो छे, तेथी माहारे तो आधार, त्राण, शरण, सर्व हे देव ! तमेज छो ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥ एकवार प्रभुवंदना रे, आगम रीतें थाय ॥ कारणसत्यें कार्यनी रे, सिद्धि प्रतीत कराय ॥ जि० ५॥ अर्थः-- माटे श्रीअरिहंत अनंतज्ञानी, अनंतदर्शनी, शुद्धचारित्री, अविकारी, अकषायी, स्वरूपभोगी, स्वरूपरमणी, स्वरूपविलासी, त्रैलोक्यपूज्य, त्रैलोक्यउपकारी, चालता भावसूर्य, कर्मरोगना महांवैद्य, परमेश्वर, परमोपकारी, तेने एकवार पण जे रीतें आगम कहेतां सिद्धांतमां कथं छे, ते रीतें जो वंदन थाय, एटले अनुष्टान वर्जीने गुणबहुमानें अद्भुतता, आश्चर्यता, तंदू विरहकातरतायें जो थाय, तो माह मोक्षरूप कार्य निपजे, एहवी प्रतीत कराय, शा माटे ? जे कारणसत्तें कहेतां छते कारणें अथवा कारण सत्यें कार्यनी सिद्धि एटले निष्पत्तिनी प्रतीत कराय, अने कार्य पण निपजे, एटले श्रीप्रभु परमात्माने विधिएं वंदना करतां उपादान जे आत्मा, ते गुणानुयायी थयो, तो निमित्त तथा उपादान बेढ कारण साचां मल्याथकी कार्य पण साधुं निपजे, जेम स्त्री, धन, विषयादिक अशुद्ध निमित्त मले तेवारें आत्मा अशुद्ध उपादानी थाय. तेथी संसार अशुद्धतारूप कार्य निपजे छे, तो श्रीवीतराग शुद्ध निमित्त मलेथी उपादान जे आत्मा ते शुद्धपरिणामी थाय. तेथी, शुद्ध सिद्धतारूप कार्य निपजेजी, अनादिकाल संसारमां २६ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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