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मानव स्वार्थे अन्धरे; मिथ्याबुद्धियोगे लोको, अवळीदृष्टिए बन्धरे. वीर० ॥ २ ॥ सर्व कदाग्रह दूरे नासे, प्रगटे सत्य प्रकाशरे; सत्यनेमाटे सर्व समर्पण, शुद्धातमविश्वासरे. वीरण ॥३॥ द्रव्य क्षेत्रने कालने जावी, सत्यासत्य जणायरे; सत्यनां सर्वे दृष्टि बिंदुओ, प्रगटे सत्य ग्रहायरे. वीर० ॥४॥ सत्यने न्याय ग्रहे मध्यस्थी, पकमे न गद्धापुच्छरे; जूतुं ते साचुं नहीं माने, सत्य आगळ सहु तुच्छरे. वीर ॥५॥ नयनिक्षेपने भंगप्रमाणे, जैनधर्म डे सत्यरे; सर्वनयोनी सापेक्षाए, समजो दर्शन कृत्यरे. वीर०॥ ६ ॥ ज्ञानी संतनी सेवा नक्ति, करतां मध्यस्थभावरे; प्रगटे सर्वकर्म व्यवहारे, समजाता सत्यदावरे. वीर ॥७॥ काल स्वभावने नियति कमें, उद्यमे थातुं काजरे; पंचना समवाये डे कार्यनीसिद्धिन साम्राज्यरे. वीर ॥८॥ माध्यस्थभावे वतों लोको, करशो धार्मिककर्मरे; सुणशो वांचशो जोशो चिंतशो, दिलमां प्रगटशे शर्मरे, वीर० ॥९॥ सर्वबाजुथी सत्य तपासो, करो मध्यस्थे काजरे; दर्शन ज्ञान चरणनी प्राप्ति, प्रगटे शिव साम्राज्यरे. वीर० ॥ १०॥ मध्यस्थभावे वीरप्रभुने, पूजो ध्यावो हमेशरे; बुद्धिसागरशुद्धातमपद, पामो अलख
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