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परिहरो, एवो प्रभुनोरे बोधरे. मैत्री० ॥२॥ आतम सरखारे सर्वे जीव छे, कर्मवमे परतंत्ररे; अज्ञाने ते रे सत्य न जाणता, जपता मोहनो मंत्ररे. मैत्री० ॥३॥ कर्मप्रमाणेरे सुख दुःख संपजे, जीवो निमित्त होयरे; कर्मविना कोइ निमित्त नहीं थतुं, शत्रु न मानो कोयरे. मैत्री० ॥ ४॥ सम्यग्दृष्टिने सवळीबुद्धिथी, सर्वजीवो होय मित्ररे; आत्मोन्नतिमारे हेतु परिणमे, कोइ न होय अमित्ररे. मैत्री ॥५॥ सातनयो. थीरे मत्रीभावना, चउनिक्षेपरे जाणर; द्रव्यने भावेरे निश्चय व्यवहर, प्रगटे केवलज्ञानरें. मैत्री० ॥ ६ ॥ जेना मनमारे मित्र जगत् बन्युं, ते छे जगनोरे मित्ररे; भव बंधनथीरे मुक्त प्रभु थयो, ज्ञानी संत पवित्ररे. मैत्रीण ॥७॥ खमो खमावोरे सर्वे जीवने, टाळी रागने रोषर; जैनधर्मनारे ए व्यवहार छे, करवो आतमपोषरे. मैत्री० ॥ ८॥ मैत्रीनावना वर्तन आदरो, टाळी मोहनी वृत्तिरे; दुःख सहीनरे सघळाजीवनी, करशो प्रेमेरे भक्तिरे. मैत्री० ॥ ९ ॥ परमातम सत्ताए सहुजीवो, आतममां एम भावरे; बुद्धिसागर मैत्रीभावना, भवसागरमांही नावरे. मैत्री ॥ १० ॥ ॐo-मैत्रीभावलानाय ज य स्वाहा.
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