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(१०७) मैत्रीभावना जावो भविजना. ॥ ॥१॥ सर्व जीवोने मित्रसमा गणो, छंडो वैर विरोध;शत्रु दृष्टिरे दिलथी परिहरो, एवो प्रजुनोरे बोध. मैत्रीण ॥२॥ बातम सरखारे सर्वे जीव , कर्मवडे परतंत्र; अज्ञाने ते रे सत्य न जाणता, जपता मोहनो मंत्र. मैत्री० ॥३॥ कर्म प्रमाणेरे सुख दुःख संपजे, जीवो निमित्त होय; कर्म विना कोइ निमित्त नहीं यतुं, शत्रु न मानोरे कोय. मैत्री० ॥ ४ ॥ सम्यग्दृष्टिने सवळीबुद्धिथी, सर्व जीवो होय मित्र; आत्मोन्नतिमारे हेतु परिणामे, कोई न होय अमित्र. मैत्री० ॥ ५॥ सातनयोथोरे मैत्रीभावना, चनिक्षेपेरे जाण; द्रव्यने नावरे निश्चय व्यवहारे, प्रगटे केवल ज्ञान. मैत्री ॥६॥ जेना मनमारे मित्र जगत् बन्यु, ते छे जगनोरे मित्र; जव बंधनथीरे मुक्त प्रभु थयो, ज्ञानी संत पवित्र. मैत्री० ॥७॥ खमो खमावारे सर्वे जीवने, टाळी रागने रोष; जैनधर्मनोरे ए व्यवहार छे, करवो आतम पोष. मैत्री० ॥ ८॥ मैत्रीनावना
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