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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिंसा का रुख अर्थात् आत्मकथा की पूर्णाहुति १२३ ____ मुनिवर बोले, 'नयनावली ने तीसरी नरक का आयुष्य वाँध लिया है। धर्मोपदेश से परिणत होने जैसी उसकी योग्यता नहीं है । अतः उस पर करुणा लाने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग ही नहीं है।' मारिदत्त! हमने उज्जयिनी का जंगल छोड़ दिया । सुदत्त मुनि भगवंत सुधर्मा स्वामी गुणधर भगवान के शिष्य हैं। उनके पास गुणधर राजर्षि जो मेरे पिता हैं उनका मैं शिष्य हूँ और ये साध्वी मेरी सगी वहन है। मेरा नाम अभयरुचि और इसका नाम अभयमती है । हमारे अट्ठम का पारणा था । इस पारणे के लिए मैं भी भिक्षार्थ निकला था और वे भी भिक्षार्थ निकले थे। तेरे राज-सेवक हमें वत्तीस लक्षणयुक्त मानकर पकड़ लाये और उन्होंने हमें यहाँ तेरे समक्ष कुण्ड में बलि चढ़ाने के लिए प्रस्तुत किया । राजन्! यह हमारा स्वरूप है और एक आटे के मुर्गे का वध करने मात्र से हमने इतने भवों में भटक कर प्रत्यक्ष दुःख का अनुभव किया है, तो हजारों जीवों का प्रत्यक्ष वध करने वाले तेरा क्या होगा? इसका तू स्वयं ही विचार कर। __ अभयरुचि मुनिवर ने अपनी आत्मकथा पूर्ण की। राजा के समक्ष देखा तो वह अचेत होकर भूमि पर पड़ा था । सेवकों ने उस पर जल छिड़का तो वह उठ बैठा, 'भगवन! मेरे अविनय के लिए क्षमा करें। मैं यहाँ राजर्षि गुणधर की प्रतीक्षा कर रहा था । उनका मेरे राज्य में पदार्पण हुआ है यह आप से ही ज्ञात हुआ । उनका सम्मान करने के बदले उन्ही के शिष्य को मैंने वन्दी बनाया । अब मैं उनके पास क्यों जाऊँ? मुनिवर! जयावली मेरी सगी बहन है, राजा गुणधर मेरे बहनोई हैं और तुम दोनों मेरे भानजे हो। महर्षि! मैं अपना होश खो बैठा । देवी के भक्तों के कारण मैं हिंसा के मार्ग पर प्रेरित हुआ। मैंने अनेक जीवों की हिंसा की, मदिरा-पान करके अपनी बुद्धि भ्रष्ट की। सेवको! खडे हो जाओ और ये मदिरा के घड़े फोड़ डालो, पिंजरे खोल कर पक्षियों को मुक्त कर दो, इन बिचारे निर्दोष मूक पशुओं को झूटों से मुक्त कर दो। हे देवी के भक्तो! भोले मनुष्यों को भ्रमित कर हिंसा कराना बन्द करो और आप भी हिंसा करना छोड़ दो।' ' राजा खड़ा हुआ और देवी की मूर्ति के सामने जाकर बोला, 'देवी! क्या तू जीवहिंसा से प्रसन्न होती है? तेरे नाम पर यह सव हिंसा हो रही है, उससे क्या तु प्रसन्न है? उत्तर दे, इस समस्त हिंसा का उत्तरदायित्व तेरा है अथवा तेरे भक्तों का है?' राजा की पुकार के बीच गगन में से पुष्प-वृष्टि हुई और तुरन्त ही देवी की प्रतिमा में से दुकूलों से सुशोभित देवी प्रकट हुई और सर्व प्रथम वह मुनिवर को प्रणाम करके बोली, 'राजन्! हिंसा कदापि कल्याणकारिणी नहीं होती । यह आत्म कल्याण अथवा सांसारिक For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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