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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सचित्र जैन कथासागर भाग. ११६ पर भी उन्होंने मुनि पर उपसर्ग नहीं किया । जव मैंने मुनि का वध नहीं किया परन्तु मन से तो उनकी बुरी तरह हत्या करने की इच्छा की, अतः वास्तव में तो मैं मुनिहत्यारा ही हूँ । ये मुनि पूर्ण रूपेण समता के सागर हैं। उनकी शत्रु-मित्र पर समदृष्टि है । अतः उन्होंने मुझ पर दया रखी, परन्तु जिस प्रकार मैंने उनका अनिष्ट सोचा उसी प्रकार यदि उन्होंने मेरे अपराध का दण्ड देने की ही बुद्धि रखी होती तो क्या मैं खड़ा का खड़ा भस्म न हो जाता ? परन्तु उन दयालु ने मुझे क्षमा प्रदान की। अच्छा, मैं मुनि के पास जाता हूँ, और उनसे क्षमा याचना करता हूँ। उनके पास जाकर मैं उन्हें कहूँ कि, 'भगवन्! मुझ पामर का अपराध क्षमा करें। प्रजा पालक कहे जाने वाले आप निर्दोष का संहार करने के लिए शिकारी कुत्ते भेज कर मैंने अपनी पापी जाति को प्रकट किया है ।' परन्तु दूसरे ही क्षण उसको विचार आया कि मैं क्या मुँह लेकर मुनि के पास जाऊँ? मैं वहाँ जाकर क्या करूँ? और क्या कहूँ ? For Private And Personal Use Only - २ (४) इसी अर्से में अर्हदत्त श्रावक मुनि को वन्दन करने के लिए आया। उसने राजा पर दृष्टि डाली । राजा को पश्चाताप करता देख कर वह समस्त वात समझ गया और इसलिए गुणधर राजा उसे कुछ कहे उससे पूर्व उसने राजा को कहा, 'राजन्! आप घवरायें नहीं । ये मुनि समता के सागर हैं। ये कलिंग नृप अमरदत्त के सुदत्त नामक पुत्र हैं। वे कलिंग के राज्य-सिंहासन पर बैठे थे परन्तु इन्हें राज्य की दण्ड- नीति पसन्द नहीं आने से इन्होंने विरक्त होकर युवावस्था में सर्वस्व का परित्याग करके दीक्षा ग्रहण की है। दीक्षित होने के पश्चात् इन्होंने कठोर तप करके देह को सुखा दिया। जिस प्रकार स्वर्ण को अग्नि में डालने से वह शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार उन्होंने अपनी देह को तप करके निर्मल वना दी है। इन्होंने क्षुधा, पिपासा आदि साधु-जीवन में सुलभ गिने जाने वाले वाईस परिषह सहन करके आत्मध्यान प्रारम्भ किया । फल स्वरूप संयम के प्रताप से इन्हें अनेक लब्धियों की प्राप्ति हुई है। ये मुनि कदापि स्नान अथवा दन्त मंजन नहीं करते है फिर भी इनकी देह चन्दन की अपेक्षा भी अधिक सुगन्धित है और इनके शील एवं चारित्र की सुगन्ध तो इतनी उत्तम है कि क्रूरतम पशु भी इनके दर्शन मात्र से वैर रहित होकर सरल वन जाते हैं । जहाँ जहाँ ये महात्मा विचरते हैं उस भूमि में रोग, उपद्रव अथवा महामारी आदि कुछ नहीं रहता । इन की चरण-रज को सिर पर चढाने वाले लोग जन्म के भयंकर रोगों से भी मुक्त हो जाते हैं । ये महात्मा इस प्रकार के राजर्षि हैं । विश्व में जिन्होंने पूर्ण सुकृत किया हो उन्हें ही इनके दर्शन का लाभ प्राप्त होता है। उनका दर्शन महानतम मन की सिद्धि को पूर्ण करने वाला महान् शुभ शकुन का परिचायक है ।' अर्हदत्त मुनि की प्रशंसा करते-करते रुका कि गुणधर के नेत्रों में आँसू आ गये ।
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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