SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १११ हिंसा का रुख अर्थात् आत्मकथा की पूर्णाहुति (४०) हिंसा का रुख अर्थात् आत्मकथा की पूर्णाहुति (आठवाँ, नवाँ और दसवाँ भव) राजन् मारिदत्त! आप हमारा आठवाँ भव सावधान होकर सुनें । इस भव में हमारे हिंसा के रुख में परिवर्तन आया और हम कल्याण की ओर उन्मुख हुए क्योंकि मुर्गेमुर्गी के सातवें भव में मरते-मरते हमने अनशन किया था जिससे मरते समय हमारे हृदय में से द्वेप का भाव निकल गया और समता का भाव आया था। कठोर हृदयी कालदण्ड हमारी मृत्यु देखकर करुणा-सिक्त बना | उसके नेत्रों में आँसू आये और वह विचार करने लगा। इन पक्षियों को जातिस्मरणज्ञान हुआ, उन्होंने अनशन किया और घड़ी भर में उनकी मृत्यु भी हो गई। यह सव इतनी त्वरित गति से हुआ कि मानो यह सव स्वप्न हो । सुरेन्द्रदत्त-यशोधर राजा ने आटे के मुर्गे का वध किया, जिसके लिए उसे एक के पश्चात् एक पशु-पक्षियों के इतने अधिक जन्म लेने पड़े, जवकि मैं तो पग-पग पर अनेक जीवों का संहार करता हूँ। मेरा क्या होगा? राज्य-सिंहासन को छोड़कर संयम ग्रहण करने के लिए तत्पर राजा अल्प हिंसा से कहाँ जाकर गिरा? कैसा कर्म का प्रभाव है? कालदण्ड की दृष्टि मुर्ग-मुर्गी की मृत-देहों पर पड़ी। उनके पंख छिन्न-भिन्न हो गये थे। आसपास में रक्त से खड्डा भरा गया था। उनकी आंतडियाँ वाहर निकल गई थी और उनका मोहक रूप मिट कर भयानक रूप हो गया था। कालदण्ड ने कहा, 'जैसे मुर्गा-मुर्गी हैं वैसे ही हम हैं । इस देह की चमड़ी के भीतर रक्त है, ऐसा ही हमारी देह में भी भरा हुआ है और आत्मा उड़ जाने के पश्चात् इस देह को कितने ही प्रिय पुत्र अथवा पत्नी हों तो भी घड़ी भर के लिए कोई नहीं रखेगा। यह सब जानते हुए भी इस देह का पोषण करने के लिए और उसकी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए जीव प्रतिदिन कितने भयंकर पाप करते हैं? केवल कल की बात है। यशोधर के समान राजा और माता चन्द्रमती के समान राजमाता सात पीढ़ियों में भी मालवा की गद्दी पर नहीं हुए। वे कैसे प्रजा-वत्सल थे? उन्होंने जन्म लेकर किसी का अहित तो किया ही नहीं था, फिर भी आह! उनकी कैसी दशा हुई? मैं अभागा हूँ कि ये राजा और राजमाता हैं यह जानने पर भी मैं उनकी उचित For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy