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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुम्हारा धर्म अर्थात् काल-दण्ड १०७ __ आचार्यश्री ने कहा, 'भाग्यशाली! हमारा और तुम्हारा कोई भिन्न धर्म नहीं है । सवका धर्म एक है | गायों में कोई लाल होती है, कोई पीली होती है, कोई श्वेत होती है तो कोई चित्तकवरी होती है, परन्तु समस्त गायों का दूध श्वेत होता है। किसी भी गाय का दूध लाल अथवा चित्तकवरा नहीं होता। उसी प्रकार से कोई भगवे वस्त्र पहनता है, कोई श्वेत वस्त्र पहनता है, कोई मृग-चर्म रखता है परन्तु उन सव में कल्याणकारी वस्तु रूप सच्चा धर्म तो एक ही है। उत्तम कृत्य करने वाला व्यक्ति धर्मी कहलाता है और बुरे कृत्य करने वाला व्यक्ति पापी गिना जाता है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, त्याग, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह दशा उत्तम कृत्य है । उनका आचरण करने वाला धर्मात्मा और उनका आचरण नहीं करने वाला अधर्मी होता है । इस प्रकार जो सच्चे कृत्यों को सच्चे समझता है वह समकिती और मिथ्या कृत्यों को सच्चे मानता है वह मिथ्यात्वी है। ये मिथ्यात्वी जीव सच्ची समझ के अभाव में मिथ्या मार्ग को भी सत्य मान कर अनर्थ करते रहते हैं; जैसे कि ब्राह्मण विविध हिंसा युक्त यज्ञ करते हैं, भील लोक धर्म की भावना से दावानल लगाते हैं। यह सव मिथ्यात्व नहीं तो और क्या है? इस मिथ्यात्व का साम्राज्य विश्व में अत्यन्त ही व्याप्त हो गया है। सभी व्यक्ति अनर्थकारी कार्य करते हैं और उनमें अपने शास्त्रों की सम्मति वताकर उनका समर्थन भी करते हैं, परन्तु वास्तविक रीति से उस परमार्थ को जानने के लिए अपनी ज्ञान-दृष्टि का उपयोग नहीं करते । यदि इस ज्ञान-दृष्टि का उपयोग हो तो अंधकार में रही हुई वस्तु के लिए चाहे जितने विकल्प किये जा सकते हैं परन्तु उजाले में वे समस्त विकल्प नष्ट हो जाते हैं। उसी प्रकार ज्ञान-दृष्टि से यदि पदार्थ को निहारा जाये तो जीवों की अनर्थकारी प्रवृत्ति स्वतः ही समाप्त हो जायें । राजपुरुष! जो व्यक्ति तात्त्विक दशा से युक्त, मधुरभाषी, निःस्पृह, पवित्र एवं अपरिग्रही है, उसे मैं उत्तम धार्मिक कहता हूँ। यह मेरा धर्म है और सबका भी यही धर्म है। मेरा और तुम्हारा धर्म ये भेद मन-कल्पित हैं। धर्म तो सवका एक ही है।' आचार्यश्री के वचन सुन कर कालदण्ड के मन में उनके प्रति अत्यन्त प्रेम उत्पन्न हुआ और उसने कहा, 'भगवन्! आपने सचमुच धर्म की सच्ची मीमांसा की है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ही सच्चा धर्म है । भगवन्! मैं राज सेवक हूँ और हमारे राजा की कुलदेवी को प्रसन्न करने के लिए जीव-हिंसा करनी पड़ती है, उसके अतिरक्त अब मैं भविष्य में अन्य कोई पाप नहीं करूँगा।' । आचार्य भगवन् तनिक मुस्कराये और वोले, 'कालदण्ड! तु हिंसा की छूट रखता है और अव भी पाप नहीं करने का कहता है, वह तो जैसे कोई पानी में पड़ा हुआ मनुष्य कहे कि मैं स्नान नहीं करता और भोजन करके उठा हुआ व्यक्ति कहता है कि मेरे तो आज उपवास है - ऐसा हँसी का पात्र है। भले आदमी! हिंसा से बडा अन्य For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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