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(२८) प्रभुजी धर्म कर्म व्यवहारथी, संघपणुं छतुंरे लोल
आतम० ११ केवल ज्ञानीने व्यवहारके, करवानो खरो रे लोल० तेथी तीर्थोन्नति ने शीख ए, नक्तो दिल धरोरे लोल० आतम० १२ प्रजुजी तुजपर अणुसम प्रेमके, जैनो उपरेरे लोल प्रभुजी धारे ते लहे मुक्तिके, भवसागर तरेरे लोल०
आतम० १३ संघनी द्रव्यने भावथी उन्नति, हेतु मुज सहुरे लोल. स्वार्पण कीg एमां ताह्यरी, भक्ति सहु लहुरे लोल० यातम०१४ संघनी भक्तिमा नहि दोषनी, दृष्टि लक्तनेरे लोल. प्रभुजी बुद्धिसागर लक्तमां, धन्य ने रक्तने रे लोल
आतम० १५
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