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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संघनी चढतीमाटे सर्व-, अर्पण करतां धरे न गर्व निष्कामे सहु करता काज, बाह्यांतर धारे साम्राज्य. धारे मनवचकायनी शुद्धि, रागने रोषनी टाळे अशुद्धि दारुमांसथी रहेतो दूर, अपराधीपर थाय न क्रूर. धर्मार्थे अर्पाइ जाय, धर्मीने खवरावी खाय; अधीने पण आपे बोध, दुष्टत्तिनो करे निरोध, संघनी सेवाभक्ति हेत, प्राणादिक स्वार्पणसंकेत; अरस्परसमां मुजसम प्रेम, राखे धारे योगने क्षेम. देवगुरुने धर्मने संघ, चारेमा स्वार्पणतारंग; दुष्टव्यसननी होय न टेव, स्वाधिकारे करतो सेव. दोषो टाळे सद्गुण धरे, धर्मीनो रागी थै फरे; सर्वसंघनो विश्वप्रचार, करवामां तन अर्पे सार. गुणस्थानक निज निजअधिकार, गुण को करवा तैयार; समय विचारी वर्ते जेह, एवो संघ बने गुणगेह. प्रगतिकर आचारविचार, प्रामाणिक चलवे व्यवहार; सर्वखंडना संघनी सेव, करतां आतम थावे देव. ज्ञानक्रियाथी थावे मुक्त, मारां जाणे जेओ सूक्त अन्यधर्मीपर घरे न द्वेष, आपे नहीं अन्योने क्लेश. हिंसा जूठ ने चोरी त्याग, ब्रह्मचर्य धारे वैराग्यः सर्वजीवोपर मुजसम प्रीत, दोषोने हरवानी रीत. देशकालशक्ति अनुसार, गृहस्थ त्यागीना आचार; दोषी उपर घरे न रोष, अंतर्ना धारे संतोष. आतमशुद्धि राखे लक्ष, विद्या सर्वकळामां दक्ष, एवा संघनी चढती थाय, सर्वलोकने आपे स्हाय. For Private And Personal Use Only
SR No.008545
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages198
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size9 MB
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