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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२१ देव पिण देखता जेह चमके; ॥ १ ॥ बाण बहु धूमथी तिमिर पसरे सबल, कौतुकी अमरना डमरू डमके. एहवे रण शरण तुं किस्युं मुझ करई, खलपार दुष्ट देखइ तमासा, एक तिहां धर्म छे शरण माहरे वर्ड, सुजस दिइ ते करें सफल आस्या. दुहा. सायर कहे तुं भोगवे, घणा पापनो भोग; एह मुझ निंदा करी, स्यो अधिको फल भोग. विंध्यो खीले लोहने, तु निज कूख मझारि; बांध्यो छे दृढ दोरस्युं, निज बस नहीं लगार. दुम्भर भरीई तुझ उदर, घालि धूलि पाषाण; वाय भरयो भभके घणुं, तुं जगि खरो अजाण. वाहण कहे सायर तुमो, वडा जडा जग जग्ग; देखो छो गिरि प्रजलतो, नावे निज पगवेिच अग्गि ॥ ४ ॥ मेरु मधाळे तुं मध्यो, राम सरे वलीदद्ध; उच्छाली पाताल घट, पवने कीधो अद्ध. पाडे मूर्छा ते दुखे, मुखे मुंके छई फिण. संनिपातिओ घुरघुरे, छोटे कचरे लीण. भोगवतो इस पाप फल, नवि जाणे निज हांणि. दोष हे तुं पर तणा, ते नवि आवे माणि ॥ ३ ॥ ॥ ६॥ ढाल. For Private And Personal Use Only वा० ॥ १३ ॥ वा० ॥ १४ ॥ ॥ २ ॥ ॥५॥ 11 19 11 सायर कहई तु बहु अपराधि, वाहण जिभ तुं अधिकी वाघी; खोले मर्म अनेक अमारां, ढांक्यां छिद्र अमे तुमारां ॥ १ ॥
SR No.008539
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages308
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size12 MB
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