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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१४ तुं धान तृणनां मूल छेदे, लूण सघले पाथरे; तुझ जाति विण कुण जीव पामें, मुख तेणे साथरे. एरंडो नहि सुरतरू तरुअर, कहिइ दोयरें; चिंतामणि ने कांकरो, ए बे पथर होयरेः ए दोय पथरपणि विलख्यणपणुं, निज निज गुणतणुं चलि अक मुरही दुध, एक ज वरण पणि अंतरघj; इमनीर जीवन तेह, धन तुं ताहरुं विषरूप; ए तुं एक शब्दे रखे, भूले जूओ आप स्वरूप. हुँ घनजलथकी उपनो, वाध्योछं तस दृष्टिरे; जनम लगे तस गुण ग्रहुं, नवि दीठो तुं दृष्टेरे; दृष्टि नधि दीठो तुं अने, उपकार स्यो तिहां तुझतणो; निज जाति धनने तुमे जाणो, एह अम्ह अचरीज घणो; जो नीरगुणो गुणवंतं, दीखी कहे ए अम्ह जातिई। तो जगतमा जे जन भलेरा, तेह सवितुझ तातए. ॥८॥ जलमांहि निज गुण थकी, तरिई छई अमे नितरे; हुँ तारुं छं एहने, इम तुं धरे चित्तरे; इम चित्त म धरे शकट हिंठि,श्वान जिम मनमां घरे तो गर्व करवो तुझ घटें, जो पाहण तुझ जलमां तरे संबंध गुणनो एक साचो, काज ते विण नवि सरे; गुण धरे जेम मद मृषा न करे, सुजस तेहनो विस्तरे. ॥९॥ सिंधु कहें मुझ गुण घणा, स्युं तुं जाणे पोत; मुझ नंदन जग चंदलो, सघळे करे उद्योत. ॥१॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008539
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages308
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size12 MB
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