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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७५ चर्म चक्षु गोचर नहीं जे आहार नीहार; (४) अतिशय एहज सहजना च्यार धरे जिनराय, हवे कहई इग्यार जे होइ गए घनघाय. ॥ १२ ॥ दुहा. क्षेत्र एक योजनमें उच्छाहिं, देवनर तिरिय बहु कोडि माही; १ योजन गामिणी वाणी भास्ये, नर तिरिय सुर मुणे नित्य उल्ला सं. २॥१३॥ चालि. योजन शत एकांहि निहां जिनवर विहरंत, इति मारि दुरभिक्ष विरोध विराधि नहुँत; स्वपरमक अतिवृष्टि अवृष्टि भयादिक जेह, ते सवि दूरि पलाये जिम दव वरसत मेह ॥ १४ ॥ तरणि मंडल परे तेज ताजे, पूंठिं भामंडल विपुल राजे (११) सुरकृत अतिशय जे? लहिए, एक उंणा हवे वीस कहीए ॥१५॥ चालि. धर्मचक्र शुचिचामर वत्रय विस्तार, छत्रत्रय सिंहासन दुंदुभि नाद उदार; रत्नत्रय ध्वज उंचो चैत्र द्रुम सोहंत कनक कमल पगला ठवे चउ मुह धर्म कहत ॥ १६ ॥ वायु अनुकूल मुखमल वाये, कंटका उंध मुख सकल थाए; स्वामी जबथी व्रत योग साधे, केश नख रोम तबथी न वाधे. (१३) ॥१७॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008539
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages308
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size12 MB
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