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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९५७ धान दुनियामां रहे, मर्म वचन नाहि कहें, रे; खरो बखत आवे मनमोहि, उच्च भावथी रहेवुं रे, बर्त० ॥१२७॥ उच्च भावताना अभ्यासे, चिदानंद जयकारीरे; पग हेटळ रुद्धि छे परगट, जाशो नहीं जन हारीरे बर्त० ॥ १२८ ॥ चोरी झारी चुगली त्यागी, सद्गुण माला वरीएरे; ado || १३१ || कदी न हलको परने पाडो, दुःखि जन उद्धरीएरे. वर्त० ॥ १२९ ॥ उच्चभावथी सुधरे छे जन, सहु जनने सुधरखंरे; क्षायिक भावे निजगुण पामी, परम ब्रह्मपद बरबुंरे. वर्त० || १२० || आश्रवते संवरतुं कारण, उच्चभावथी थावे रे; ज्ञानिजनने संवर शुद्धि, साची मनमां भावेरे. अमुक दोषी अमुक पापी, एवं दील न धारोरे; सत्ताथी निर्मल छे सर्वे, मनमां नित्य विचारोरे. वर्त० || १३२ ॥ ज्ञानदानने अभयदानथी, उत्तम जीवन करीएरे; परोपकारे मननी शुद्धि, निर्भय स्थाने ठरीएरे. परमदया कारक योगीनी, पासे सिंह जो जाबेरे; क्रूरभावने दूर करीने, दया हृदयमां लावेरे. जाति बैर तजीने पशुओ, योगी पासे बेसेरे; उच्चभावनो अदभूत महिमा, समजु चित्त प्रवेशेरे. वर्त० ॥ १३५ ॥ उच्चभावथी मुनिवर ज्ञानी, शांति जग फेलावेरे; वर्त० || १३३ ॥ वर्त०॥१३४॥ अनार्यने पण आर्य करीने, मुक्ति पुरी लेइ जावेरे. वर्त० | १३६ ॥ योगीजनना शरीर वायुथी, सर्पादिक विष नाशेरे; उच्चभावनो अद्भुत महिमा, समजुने समजाशेरे. वर्त०॥१३७॥ तप जप दानादिक आचरणो, उच्चभावथी प्रगटेरे; विषयवासना द्वेषादिक दोष, उच्चभावथी विघटेरे. वर्त० | १३८ ॥ उच्चभावथी मुनिवर था, उच्च भावयी ज्ञानीरे; For Private And Personal Use Only
SR No.008538
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages218
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size11 MB
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