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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ २११ ॥ ॥२१२ ॥ ॥२१३ ॥ ॥ २१४ ॥ ॥२१५ ॥ १७८ पुद्गल ऐंठने मेलवी, करतो तेथी खेल; भिन्न द्रव्यथी खेल श्यो, जाणी तेहने मेल. समजे तो निर्भय सदा, सौथी सत्तावान् ; दृढ निश्चयथी धारतां, वर्ते त्रिभुवन आण. दीपक हस्त ग्रही मुधा, खोले निजने कोय; अंतर ज्ञान प्रकाशतां, परमां शुं निज होय. हरिशिशु अजवृन्दमां, बालपणे करी वास; अजबुद्धि निजमां धरी, वर्ते संगे खास; केशरीसिंह निहाळतां, होवे निजरूप याद, परमातम पद ध्यावतां, तत्पद अंतर हार्द. उपयोगी उपकारवंत, दृढ साहसने धैर्य गुरुश्रद्धाभक्ति घणी, विनय विवेकी शौर्य. चले नही निज टेकथी; भय लज्जानो त्याग; शिष्यो एवा धारशे, आतमपदथी राग. दोरंगी दुनिया वदे, ते उपर नहीं ध्यान कान सान सारे सदा, भूले नहीं निज भान. जिज्ञासु निज तत्वना, शिष्यो धरशे प्रेम अंतर तत्वे चित्तने, वाळी लेशे क्षेम. अंतरतत्त्वे चित्त त्यां, शुद्धदशा प्रगटाय; शुद्धरुचि त्यां कोइनी, भीरु भवभटकाय. भीरु कायरता करे, त्यागे अंतर टेक मकरग्रहणत्ति करे, निज पदना जे छेक. सद्गुरु आज्ञा धारता, वैयाकृत्ये व्हाल; क्षुद्रवृत्ति जेनी नही, धारे अन्तर ख्याल.. वचन टेक छोड़े नही, गुरु भक्तो सुदयाल; ॥२१६ ॥ ॥ २१७॥ ॥२१८॥ ॥ २१९ ॥ ॥ २२०॥ ॥ २२१ ॥ ॥ २२२ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008538
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages218
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size11 MB
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