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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७ ॥ ॥ ७६ ॥ ॥ ७७॥ ॥ ७८॥ पश अपकीर्तिमान पान, चेतन ए सहु पाय. -फेरफार वायुथकी, साजा गांडा याय; पोले एवं पावरा, जूटु ए कहेवाय. प्राथिलता कर्मोदये, निमित्त योगे थाय; आतम भूले भान निज, गांडो जग गवराय. कर्ता भोक्ता कर्मनो, चतुर चेतन जाण; पुनर्जन्मनी साविती, पूर्वे करी प्रमाण. पुनर्जन्मनी सिद्धता, भाखी आतम ग्रंथ; समजु समजी सत्यने, चाले मुक्ति पंथ. श्रद्धा पक्की जो हुवे, तो सघळू समजाय; अभवी दुरभवी जीवने, श्रद्धा कदी न थाय. सघलु अवलुं परिणमे, मीटु लागे झेर; अभवी दुरभवी जीवने, अंतरमां अंधेर. कोण हुने मायलं, तेनुं नहि मन भान; बाहिर दृष्टि वासना, बहिरातमनुं ठाण. ईश्वर कर्ता मानता, बहिरातमनी ल्हेर; आतमते परमातमा, मान्या वण अंधेर. रागद्वेष जेने नहीं, निराकार भगवान् ; समवायि कारण विना, निमित्तनुं शुं ठाण. काल अनादि दुनीयां, स्वयंसिद्ध ते जाण; कर्ता नहि तेनो प्रभु, एवं मनमा आण. काल अनादि परिणमी, अशुद्ध परिणति योग, देहादिकनो आतमा, कापणे प्रयोग. आतम तेहिज ईश छ, सत्ताए कहेवाय; शुद्धाशुद्ध सुवर्णवत्, घर सयुक्ति न्याय. ॥ ७९ ॥ ।। ८०॥ ॥ ८१॥ ॥८२॥ ॥ ८३॥ ।। ८४॥ ।। ८५.॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008538
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages218
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size11 MB
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