SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥७॥ १२३ पुष्ट निमित्तासेवथी, उपादाननी सिद्धि उपादान आसेवना, प्रगटे अनन्त ऋद्धि. उपादाननी योग्यता, प्रगटे शुद्ध स्वभाव; शुद्धभाव चारित्र छे, भवजलधिमां नाव. अनन्त अक्षय मुखमयी, निर्मल सिद्ध समान; बुद्धिसागर पामीए, अनन्तगुण भगवान्. ॥८॥ ॥२॥ ॥३॥ चिदानन्द. चिदानन्द निर्मल प्रभु, गुणपर्यायाधार;. छतिपर्याय अनंतमय, ज्ञानथकी निर्धार. सामर्थ्यपर्याय छे, व्यय उत्पत्ति स्वरूप; द्रव्यार्थिकथी ध्रुवता, शुद्धभाव निजरूप. द्विविधनय दृष्टि करी, ध्यावो चिन्मय देव; शुद्धनय निज थापना, करवी निजपद सेव. चतुर्निक्षेपे ओळखी, निर्मल सहजानन्द ध्याता ध्येय स्वरूपमा, वर्ते नासे फन्द. अचल अमल निर्भय प्रभु, पूजक पूज्य स्वरुप असंख्य प्रदेशी सेवतां, नासे भवभय धूप. शुद्ध चेतना सेवना, सत्य सनातन धर्म उपादान सन्मुख थतां, नासे सघळां कर्म. बहिर् रमणता झट टळे, झळके चेतन ज्योत; परमशुद्ध समाधिमां, प्रगटे सत्य उद्योत. अन्तर्चक्षु प्रकाशता, लोकालोक जणाय; अनन्त ऋद्धि पामीने, पूर्णानन्द कथाय. ॥ ४ ॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008538
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages218
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy