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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपाधि छे विषना प्याला, तजी उपाधि मुख लहो. ॥५॥ अन्तरमाहि मुख सदा छे, बाह्य जगत्मां दुःख सदा; अन्तरमाथी ममता त्यागी, ध्यान रहेशो भव्य मुदा. ॥ ६ ॥ खावू पीवं मारब्धे पण, अन्तरथी न्यारा रहे बाह्योपाधि ममता त्यागी, समताए सर्वे रहे. ॥७॥ जेणे पीधा समता प्याला, तेणे अनुभवथी दीर्द अन्तरमांहि सुख सदा छे, ज्ञानिजन मनमा मीटुं. ॥८॥ भूली भान जगत्र्नु खोडं; परम प्रभुतुं ध्यान धरो; बुद्धिसागर अनुभवामृत, पान करीने शर्म वरो. ॥९॥ उपाधिपीडाना उद्गार. अरे उपाधि केम तुं वळगी, माराथी थाने अळगी; खरे उपाधि तुं छे होळी, शाने माटे तुं सळगी. ॥१॥ हडकवायु कुतर पेठे, संगत त्हारी हडकाइ; परम ब्रह्मद् भान भूलावे, कदी न थाती तुं डाही. ॥२॥ अरे उपाधि तुजी आधि, व्याधि पण तुं प्रगटावे; शिकोतरीने चुडेल तुं छे, दुःखना खत्ता खवरावे. ॥3॥ राजन साजन महाजन मोटा, तुं वाळे तेना गोटा; फांसी शूळाथी पण बूरी, मारेछे दुःखना सोटा. ॥४॥ उपाधि तुं बडी पापिणी, अधुना अळगी था व्हेली; कहे उपाधि छोडं नहि जीव, दुःख देवामां हुं पहेली. ॥ ५ ॥ अमृत सरखी माने मुजने, तो कम हुँ तुजने छोड़ें. मारा वशमा आये तेनु, फूलाची मस्तक फोडूं. सत्ता हारी प्रगट करीने, माराधी थाने अळगी For Private And Personal Use Only
SR No.008538
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages218
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size11 MB
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