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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४५ धन्य गुरु साचा उपकारी, वाळ्यो शिवपुर पन्थ; गुरुगम वण को सार न पामे, कोटी भणे जो ग्रन्थ, गुरुए मने तार्यो रे, थयुं मारा मन धार्य. नयनी बातो कोइक पातो, सद्गुरु जेने शीर आपमतिए लातो खातों, समज्या वण तो अधीर, अपेक्षाए वाणी रे, जाणी मन हरखायुं. अंतर चक्षु जो उघडे तो, आपोआप प्रकाश; चिदानंद चेतनमय मूर्त्ति, गुण पर्याय विलास, बुद्धिसागर प्रेमेरे, तत्र स्वरुप पाएं. आत्मदेशोन्नतिना आवेश द्वार. हरिगीत• हे पत्र तुं जा प्रेमी जनना हृदयमा पेसजे, बहू लागणीथी ध्यान खेंची स्थानमां स्थिर बेसजे; सह प्रेमिओना प्रेममां वृद्धि करी झट वारमां धर्मोन्नतिथी सकल जन मन पूर्ण कर संसारमा. बहु वह वैरिओना वैर नासो कपट टळशो कारमां, सुसंपथी मंगल लहो सहु मनुष्यना अवतारमां देशोन्नतिमां सर्वजननुं चित्त साचु लागजो, देशोन्नतिमां भव्य लोको धर्मथी झट जागजो. आ देशमां तो क्लेशधी हानि थइ गणजो घणी, मजा थइ छे रांकडी माथे नही शुभ कोइ धणी; परदेशीओना जोरथी व्यापार भाग्यो देशनो, निज देशमां परदेशीओनो पाद भारे क्लेशनो. For Private And Personal Use Only भेदु. ॥। ३ ।। भेदु ॥ ४ ॥ भेदु ॥ ९ ॥ ॥ १ ॥ ॥२॥ ॥ ३ ॥
SR No.008537
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1908
Total Pages330
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size13 MB
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