SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२३ र्यायनी अनंतता छे, पण कोइ मूळ द्रव्यने तनी शकतो नदी एक क्षेत्रे एकाधारणपणे अवगाही रह्या छे, ते अभेद स्वभाव के. ५ वस्तुते स्वरूपे, केवलज्ञान गम्यपणे, वचने अगोचर अनंत धर्मात्मकपणे, द्रव्यनो अनभिलाप्यपणो, ते अर. क्तव्य स्वभाव छे. ६ छठो अनेक पर्यायनो परावर्त छे; पण वस्तुना मूल रूपथी पलटे नहीं, ते रुपेज रहे छे, ए नियतपणा माटे आ. त्मामां अभव्यस्वभाव जाणवो. बाकीना पांच द्रव्यमां पण अभव्यस्वभाव जाणवो. सामान्य स्वभाव तथा विशेषस्वभाव षद्रव्यमां सदाकाल रहा छे. सामान्य स्वभावते पदार्थनो द्रव्यास्तिक मूलधर्म छे. जे काळे एक, ते काळे अनेक, जे समये नित्य ते समये अनित्य, जे समये अस्ति, तेज समये नास्ति, जे समये भिन्न, तेज समये अभिन्न, जे समये वक्तव्य तेज समये अवक्तव्य, जे समये भव्य, तेज समये अभव्य; इत्यादिक स्वभाव आत्मद्रव्यमा रह्या छे. इत्यादिक अनेक स्वभाव आत्मामां तेमज बीजा पांच द्रव्यमां रह्या छे. तेनी सप्तभंगीओ करवी. ____ सप्तभंगीमां स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्याद् अवक्तव्यम्, एत्रण भांगा सकला देशीछे. शेष चार ते विकला देशी छे. स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् अस्ति अवक्तव्यम्, स्यात् नास्ति अवक्तव्यम्, स्यात् अस्ति नास्ति युगपत् अवक्तव्यम्: ए चार For Private And Personal Use Only
SR No.008522
Book TitleAnubhav Panchvinshtika Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1902
Total Pages249
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy