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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०४ नथी, अने विवेक दृष्टिथी सन्मार्गमा प्रवृत्ति करे छे, अने मि‘थ्या मार्गमांथी निवृत्त थाय छे. अध्यात्मशांति इच्छकोए हुं कोण छ ? मारु कोण छे ? मारुं स्वरुप शुं छे ? हुं क्याथी आव्यो ? क्यां जइश ? मारी साथे कोण आवशे? मोह मायामां हुं केम फसायो हुँ ? पाप कर्मथी हुँ अ॒ इष्टफल लेवा. नो छ ? इत्यादि विचार करवो, वळी मनमा एम विचार के, आ जगत् सर्व माया जाल छे, स्वप्न सम छे, मारुं नथी, हुँ दुनीयानो नथी, हुं कर्मवशे चार गतिमां भटकुं छु, जे जे पदार्थों आंखे देखाय छे, ते क्षणिक छे, इंद्रजालनी पेठे सांसारिक पदार्थोने हुं ममता बुद्धिथी मारा केम मार्नु ? अने तेनी प्राप्ति माटे राग द्वेष मय केम बर्नु ? संसारमा अनेक पुरुपो थइ गया. ते कोइ वस्तु साथे लेइ गया नथी, तो हुँ कइ वस्तु साये लइ जवानो ? संसार वळता अग्नि समान छ, तेमां हुं प्रमादे करी केम बेशी रहुं ? वारंवार मनुष्य जन्मनी प्राप्ति दुर्लभ छे. शरीरनो विश्वास नथी, आयुष्यनो भरोसो नथी, लक्ष्मी संध्या राग समान छे, कोइनी पासे स्थिरपणे लक्ष्मी रही नथी अने रहेवानी नथी. सत्कार्यमां लक्ष्मीना व्यय करवो, शरीरथी धर्म कार्यनुं सेवन कर. वाचाथी परमामाना गुणोनी गुणी पुरुषोनी स्तुति करवी. कोइनां मर्म वाणीथी प्रकाशवां नहीं, मिथ्याकार्यमां वाणीनो उपयोग करवा नहीं, बोलवाथी जो लडाइ टंटो थाय तो, ते भाषण करतां मौन रहे श्रेयस्कर छे. बहु बोलबाथी कंइ आत्माहत थतुं For Private And Personal Use Only
SR No.008522
Book TitleAnubhav Panchvinshtika Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1902
Total Pages249
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size11 MB
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