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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्राह्मण, वैश्य, आत्मा नथी; 'वृद्ध, युवान बाल, आत्मा नथीं; आत्मा अरुपी छ, निवेदी छे, सदा शाश्वत मुख भाक् आत्मां छे. रत्नत्रीयनो भोकता आत्मा छे. आ मारुं छे, आ मारो शत्रु छे, आ मारो मित्र छे, एवी बुद्धि ज्यां सुधी छे, त्यां मुधी आत्मशुभाभिलाषा दूर जाणवी. मनुष्योने क्रोध द्वेष, निंदा, अन्यनो तिरस्कार, वैर बुद्धि आदि असेव्य भावो उपजवामां हेतु ए होय छे के, अमुक सारं अने अमुक खोटुं, एवी भेद बुद्धि तेमने बंधाइ गइ होय छे, अने तेथी करीने पोते जेने खोटुं मान्युं होय छे, तेवो सहज प्रसंग उपजतां, तओने क्रोधनो आविर्भावः थाय छे, आ क्रोधना समये हुं कोण छ, आत्मा शुं स्वरुप छे, मारो शो धर्म छे, इस्यादि सद् विचारो तत्काळ विसरी जाय छे. अने एक क्षणमां क्रोध थतां आत्म भक्त मटी कोध रुप पिशाचनो भक्त बने छे. आत्मवाधक बने छे. अने स्वात्म कर्त्तव्य परायणता वेगळी मूकी न करवानुं करे छे, अने क्षणवार नमो अरिहंताणं आदि महामंत्रनुं स्मरण करी पश्चात् एम माने छे के, मने एजेंफळ थयु नहीं, पण विचार के, आत्म निरीक्षण कर नथी, सत् संगति करवी नथी, अने घरमा खातां पीतां हरि मले तो हमकुबी कहेनो एवी प्रवृत्ति राखवी छे, तो इष्ट फल शी रीते मेळवी शकीए ? धर्मनी योग्यता प्राप्त करवी नथी। अने धर्म उपर खरो प्रेम लान्या विना एकदम मुक्ति लेवी छे, तेशी रीते मळे ? For Private And Personal Use Only
SR No.008522
Book TitleAnubhav Panchvinshtika Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1902
Total Pages249
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size11 MB
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