SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्या तथा भव्य लोकोने केवी रोते उपदेश आप्यो, आत्मगुणो प्राप्त करवाने तेमने पंच मुनित्रत अंगीकरी केवां कष्ट सहन कर्या, अंते घाति कर्मनो क्षय करी कैवल्य लक्ष्मीयी पोताना आत्माने अखंड धननो स्वामी कर्यो, तेम हुं पण कयारे करोश ? एम आपणी मनोवृत्ति ते गुणोंने प्राप्त करवा लक्ष खँचे छे, पण तेमनुं शरीर मनोहर हतुं, तेवुं मारुं थाओ एम अभीलाषा रहेती नथी. तेथी रुपीपणुं प्राप्त थतुं नथी. माटे रुपी एत्री प्रभुनी मूर्त्तिनी पूजा करवाथी तेमनी भक्ति करवाथी साक्षात् अरिहंत भगवान्नी पूजा भक्ति करी कहेवाय, कार मां भावनुं बन्ने ठेकाणे सादृश्यपणुं छे, प्रभुनी मूर्तिमां प्रेम भक्तिने लीघे एवा दृढ संकल्पथी साक्षात् थइ गएला तीर्थंकनो आरोप करवामां आवे छे के जेथी मूर्ति स्वरुपे साक्षात् तीर्थकर भगवान् भासे छे. अने तेवी रांते भासतां प्रभु वहुमान, गुणग्राम अत्यंत भक्तिथी करतां आत्मानो शुद्ध या शुभ परिणाम प्रगटे छे, अने घणां कर्म तत्क्षण नाशे छे. अने प्रभुना वचनोना बहुमान रुप तत्त्वरुचि प्रगटे छे, अने प्रभुना आगम उपर श्रद्धा बेसतां सम्यक्त्व प्रगटे छे. अने सम्यक्त्व मग थतां क्रोध, मान, माया, लोभनी क्षीणता थाय छे. अनादिकाळथी संसारमां ममताथी थती प्रवृत्ति स्वतः बंध पडे छे, अभव्य जीवने संसारमां मवृत्ति अनादि अनंत भांगे है. भव्यजीवने संसारमां प्रवृत्ति सम्यक्त्व प्रगट थया बाद अनादि सान्त भांगे छे, एटले भव्यात्मा बहिरात्मभावे परवस्तुने For Private And Personal Use Only
SR No.008522
Book TitleAnubhav Panchvinshtika Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1902
Total Pages249
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy