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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्याग करलो छे. धर्मध्यान अने शुक्ल ध्यानना पायामां चित्तनी ऐक्यता करता ·छता भगवान् गामोगांम विचर्या. अहो ! हुं द्रव्यस्त्री अने भावस्त्रीना त्याग पूर्वक आत्मानी शुद्ध परिणतिने ओळखी तेमां रमतो छतो क्यारे मुनिपणुं ग्रहण करी गामोगाम विचरीश ? श्री तीर्थकर महाराजाए पंच महाव्रत ग्रहण कर्या, तेम हुँ पण पंच महाव्रत ग्रहण करी शुद्ध चारित्र पाळतो निर्मळ स्वभाव क्यारे मनुष्यायु निर्गमन करीश ? अहो मारी क्यां अल्पज्ञता अने प्रभुनी क्यां सर्वज्ञता! हुं अल्पज्ञ छता केम अभिमान करुंछु. अहो प्रभुनी शान्त मूर्ति मारा हृदय कमळने सूर्यना प्रकाशनी पेठे विकाशे छे. __ प्रभुनी मूर्तिी साक्षात् तीर्थकर भगवाननी स्मृति उद्भवे छे. अने प्रभुनु स्मरण थतां साक्षात् मूर्तिमां अने प्रभुमा भिन्नता भासती नथी. अहो, परमोपकारी परम पूज्य अशरणशरण, भवांभोधि तारक तरणि समान संसार तारक, चटगति वारक, श्री तीर्थकर भगवान्ना स्मरणथी मनमा उत्पन्न यता संकल्प विकल्पोनो नाश क्षणमां थाय छे. मन-रुपनि ध्यान स्मरण करवाथी रुपी पणुं प्राप्त थाय छे, अने अरुपीनुं ध्यान स्मरण करवाथी अरुपीपणुं प्राप्त थाय अने रुपीपणाथी तो परमात्म पदनी प्राप्ति थती नथी. माटे 'रुपी एवी प्रभुनी मूर्त्तिनुं ध्यान स्मरण करवाथी अरुपी पणुं शी रीते प्राप्त थाय ? For Private And Personal Use Only
SR No.008522
Book TitleAnubhav Panchvinshtika Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1902
Total Pages249
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size11 MB
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