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________________ उन्हों की परम्परा में सूत्रधार मण्डन भी थे। देव- प्रासाद एवं नृप मंदिर आदि के निर्माण कता सूत्रचारों का कितना अधिक सम्मानित स्थान था यह मण्डन के निम्न लिखित श्लोक से ज्ञात होता है " इत्यनन्तरतः कुर्यात् सूत्रधारस्य पूजनम् । भूवित्तवस्त्रालङ्कारे-महिष्यश्ववाहनः [I श्रन्येषां शिल्पिनां पूजा कर्त्तव्या कर्मकारिणाम् । स्वाधिकारानुसारेण स्वताम्बूलभोजनैः ॥ काष्ठपाषाणनिर्माण - कारिणो यत्र मन्दिरे । भुञ्जतेऽसौ तत्र सौख्यं शङ्करत्रिदर्शः सह ॥ पुण्यं प्रसादजं स्वामी प्रार्थयेत्सूत्रधारत । सूत्रधारो वदेत् स्वामिश्रयं भवतात्तव ।।" प्रसादमण्डन ८. ६२-६५ प्रर्थात् निर्माण की समाप्ति के अनन्तर सूत्रधार का पूजन करना चाहिये और अपनी शक्ति के अनु सार भूमि, सुवर्ण, बस्त्र, अलङ्कार के द्वारा प्रधान सूत्रधार एवं उनके सहयोगी अन्य शिल्पियों का सम्मान करना आवश्यक है । जिस मन्दिर में शिला या काष्ठ द्वारा निर्माण कार्य करने वाले शिल्पी भोजन करते हैं वहीं भनवान् शंकर देवों के साथ विराजते हैं । प्रासाद या देव मन्दिर के निर्माण में जो पुराय है उस पुण्य की प्राप्ति के लिये सूत्रधार से प्रार्थना करनी चाहिए, 'हे सूत्रधार, तुम्हारी कृपा से प्रासाद निर्माण का पुण्य मुझे प्राप्त हो।' इसके उत्तर में सूत्रधारक कहे हे स्वामिम् ! सब प्रकार प्राप की अक्षय वृद्धि हो । सूत्रधार के प्रति सम्मान प्रदर्शन की यह प्रथा लोक में प्राजतक जीवित है, जब सूत्रधार शिल्पी नूतन गृह का द्वार रोककर स्वामी से कहता है 'श्राजतक यह गृह मेरा था, अब प्राज से यह तुम्हारा हुआ '' उसके मनन्तर गृह स्वामी सूत्रधार को इष्ट-वस्तु देकर प्रसन्न करता है और फिर गृह में प्रवेश करता है। । सूत्रधार मण्डन का प्रासाद मण्डन ग्रन्थ भारतीय शिल्प ग्रन्थों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। मरान ने आठ अध्यायों में देव प्रासादों के निर्माण का स्पष्ट और विस्तृत वर्णन किया है । पहले प्रध्याय में विश्व कर्मा को सृष्टि का प्रथम सूत्रधार कहा गया है । गृहों के विन्यास और प्रवेश की जो धार्मिक विधि है, उन सब का पालन देवायतनों में भी करना उचित है। चतुर्दश श्लोकों में जिन जिन प्रासादों के साकारदेवों ने शंकर की पूजा के लिए बनाये उन्हीं की अनुकृति पर १४ प्रकार के प्रासाद प्रचलित हुए। उनमें देश-भेद से प्रकार के प्रासाद उत्तम जाति के माने जाते हैं- नागर, द्राविड़, भूमिज, लतिन, सावन्धार ( सान्धार ), विमान - नागर, पुष्पक और मिश्र । लतिन सम्भवतः उस प्रकार के शिखर को कहते थे जिसके उरग में लता की प्राकृति का उठता हुआ रूप बनाया जाता था । शिखरों के ये भेद विशेषकर श्रृंग और तिलक नामक अलंकरणों के विभेद के कारण होते हैं। प्रासाद के लिए भूमि का निरूपण आवश्यक है। जो भूमि चुनी जाय उसमें ६४ या सो पद या घर बनाने चाहिए । प्रत्येक घर का एक-एक देव होता है जिसके नाम से वह पद पुकारा जाता है। मंदिर के निर्माण में नक्षत्रों के शुभाशुभ का भी विचार किया जाता है। यहां तक कि निर्माण कर्ता के अतिरिक्त
SR No.008426
Book TitlePrasad Mandana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1986
Total Pages290
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size6 MB
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