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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २५८ ] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द विलोचनपुटाः किमपि स्वबुद्ध्यावलोक्य यथासुखमासते, ते खल्ववधीरितभिन्नसाध्यसाधनभावा अभिन्नसाध्यसाधनभावमलभमाना अन्तराल एव प्रमादकादम्बरीमदभरालसचेतसो मत्ता इव, मूर्च्छिता इव, सुषुप्ता इव, प्रभूतघृतसितोपलपायसासादितसौहित्या इव, ससुल्बणबल-सञ्जनितजाड्या इव, दारुणमनोभ्रंशविहित मोहा इव, मुद्रितविशिष्टचैतन्या वनस्पतय इव , हुए, आँखोंको अधमुन्दा रखकर कुछभी स्वबुद्धिसे अवलोक कर यथासुख रहते हैं [अर्थात् स्वमतिकल्पनासे कुछ भी भासकी कल्पना करके इच्कानुसार- जैसे सुख उत्पन्न हो वैसे-रहते हैं], वे वास्तवमें भिन्नसाध्यसाधनभावको तिरस्कारते हुए, अभिन्नसाध्यसाधनभावको उपलब्ध नहीं करते हुए, अंतरालमें ही [-शुभ तथा शुद्धके अतिरिक्त शेष तीसरी अशुभ दशामें ही], प्रमादमदिराके मदसे भरे हुए आलसी चित्तवाले वर्तते हुए, मत्त [ उन्मत्त ] जैसे, मूर्छित जैसे, सुषुप्त जैसे, बहुत घी-शक्कर खीर खाकर तृप्तिको प्राप्त हुए [ तृप्त हुए] हों ऐसे, मोटे शरीरके कारण जड़ता [मंदता, निष्क्रियता] उत्पन्न हुई हो ऐसे , दारुण बुद्धिभ्रंशसे मूढ़ता हो गई हो ऐसे, जिसका विशिष्टचैतन्य मुंद १। यथासुख = इच्छानुसार; जैसे सुख उत्पन्न हो वैसे; यथेच्छरूपसे। [ जिन्हें द्रव्यार्थिकनयके [ निश्चयनयके] विषयभूत शुद्धात्मद्रव्यका सम्यक् श्रद्धान या अनुभव नहीं है तथा उसके लिए उत्सुकता या प्रयत्न नहीं है, ऐसा होने पर भी जो निज कल्पनासे अपनेमें किंचित भास होनेकी कल्पना करके निश्चिंतरूपसे स्वच्छंदपूर्वक वर्तते हैं। 'ज्ञानी मोक्षमार्गी जीवोंको प्राथमिक दशामें आंशिक शुद्धिके साथ-साथ भूमिकानुसार शुभ भाव भी होते हैं'-इस बातकी श्रद्धा नहीं करते, उन्हें यहाँ केवल निश्चयावलम्बी कहा है।] २। मोक्षमार्गी ज्ञानी जीवोंको सविकल्प प्राथमिक दशामें [ छठवें गणस्थान तक] व्यवहारनयकी अपेक्षासे भूमिकानुसार भिन्नसाध्यसाधनभाव होता हैं अर्थात् भूमिकानुसार नव पदार्थों सम्बन्धी, अंगपूर्व सम्बन्धी और श्रावक-मुनिके आचार सम्बन्धी शुभ भाव होते हैं। यह वात केवलनिश्चयावलम्बी जीव नहीं मानता अर्थात् [आंशिक शुद्धिके साथकी] शुभभाववाली प्राथमिक दशाको वे नहीं श्रद्धते और स्वयं अशुभ भावोंमें वर्तते होने पर भी अपनेमें उच्च शुद्ध दशाकी कल्पना करके स्वच्छंदी रहते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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