SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ ] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचास्तिकायसंग्रह संठाणा संघादा वण्णरसप्फासगंधसद्दा य । पोग्गलदव्वप्पभवा होंति गुणा पज्जया य बहू ।। १२६ ।। अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिद्वसंठाणं ।। १२७ ।। संस्थानानि संघाताः वर्णरसस्पर्शगंधशब्दाश्च । पुद्गलद्रव्यप्रभवा भवन्ति गुणाः पर्यायाश्च बहवः ।। १२६ ।। अरसमरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्। जानीह्यलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।। १२७ ।। गाथा १२६-१२७ [ भगवान श्री कुन्दकुन्द अन्वयार्थ:- [ संस्थानानि ] [ समचतुरस्रादि ] संस्थान, [ संघाताः ] [ औदारिक शरीर सम्बन्धी ] संघात, [ वर्णरसस्पर्शगंधशब्दाः च ] वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द -[ बहवः गुणाः पर्यायाः च ] ऐसे जो बहु गुण और पर्यायें हैं, [ पुद्गलद्रव्यप्रभवाः भवन्ति ] वे पुद्गलद्रव्यनिष्पन्न है। [अरसम् अरूपम् अगंधम् ] जो अरस, अरूप तथा अगन्ध है, [ अव्यक्तम् ] अव्यक्त है, [ अशब्दम् ] अशब्द है, [ अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] अनिर्दिष्टसंस्थान है [ अर्थात् जिसका कोई संस्थान नहीं कहा ऐसा है ], [ चेतनागुणम् ] चेतनागुणवाला है और [ अलिङ्गग्रहणम् ] इन्द्रियोंके द्वारा अग्राह्य है, [ जीवं जानीहि ] उसे जीव जानो । 3 टीका:- जीव- पुद्गलके संयोगमें भी उनके भेदके कारणभूत स्वरूपका यह कथन [ अर्थात् जीव और पुद्गलके संयोगमें भी, जिसके द्वारा उनका भेद जाना जा सकता है ऐसे उनके भिन्नभिन्न स्वरूपका यह कथन है ] । संस्थान-संधातो, वरण - रस - गंध - शब्द - स्पर्श जे, ते बहु गुणो ने पर्ययो पुद्गलदरवनिष्पन्न छे । १२६ । जे चेतनागुण, अरसरूप, अगंधशब्द, अव्यक्त छे, निर्दिष्ट नहि संस्थान, इंद्रियग्राह्य नहि, ते जीव छे । १२७ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy