SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन [ १७९ उक्तजीवप्रपंचोपसंहारोऽयम्। एते ह्युक्तप्रकाराः सर्वे संसारिणो देहप्रवीचाराः, अदेहप्रवीचारा भगवंतः सिद्धाः शुद्धा जीवाः। तत्र देहप्रवीचारत्वादेकप्रकारत्वेऽपि संसारिणो द्विप्रकाराः भव्या अभव्याश्च। ते शुद्धस्वरूपोपलम्भशक्तिसद्भावासद्भावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्गवदभिधीयंत इति।।१२०।। ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णत्ता। जं हवदि तेसु णाणं जीवो त्ति य तं परूवेंति।।१२१।। न हीन्द्रियाणि जीवाः कायाः पुनः षट्प्रकाराः प्रज्ञप्ताः। यद्भवति तेषु ज्ञानं जीव इति च तत्प्ररूपयन्ति।। १२१ ।। ----------------------------------------------------------------------------- [ संसारिणाः ] संसारी [ भव्याः अभव्याः च ] भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकारके हैं। टीकाः- यह उक्त [ –पहले कहे गये] जीवविस्तारका उपसंहार है। जिनके प्रकार [ पहले] कहे गये ऐसे यह समस्त संसारी देहमें वर्तनेवाले [अर्थात् देहसहित] हैं; देहमें नहीं वर्तनेवाले [अर्थात् देहरहित] ऐसे सिद्धभगवन्त हैं- जो कि शुद्ध जीव है। वहाँ, देहमें वर्तनेकी अपेक्षासे संसारी जीवोंका एक प्रकार होने पर भी वे भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकारके हैं। ''पाच्य' और 'अपाच्य' मूंगकी भाँति, जिनमें शुद्ध स्वरूपकी उपलब्धिकी शक्तिका सद्भाव है उन्हें 'भव्य' और जिनमें शुद्ध स्वरूपकी उपलब्धिकी शक्तिका असद्भाव है उन्हें 'अभव्य' कहा जाता हैं ।। १२०।। गाथा १२१ अन्वयार्थ:- [न हि इंद्रियाणि जीवाः] [व्यवहारसे कहे जानेवाले एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायिकादि ‘जीवों में ] इन्द्रियाँ जीव नहीं है और [ षट्प्रकाराः प्रज्ञप्ताः कायाः पुनः ] छह १। पाच्य = पकनेयोग्य; रंधनेयोग्य; सीझने योग्य; कोरा न हो ऐसा। २। अपाच्य = नहीं पकनेयोग्य; रंधने-सीझनेकी योग्यता रहित; कोरा। ३। उपलब्धि = प्राप्ति; अनुभव। रे! इंद्रियो नहि जीव, षडविध काय पण नहि जीव छे; छे तेमनामां ज्ञान जे बस ते ज जीव निर्दिष्ट छ। १२१ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy