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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १५८ ] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द स्परकार्यकारणीभूतानादिरागद्वेषपरिणामकर्मबंधसंतति-समारोपितस्वरूपविकारं । तदात्वेऽनुभूयमानमवलोक्य तत्कालोन्मीलितविवेकज्योतिः कर्मबंधसंतति-प्रवर्तिकां रागद्वेषपरिणतिमत्यस्यति, स खलु जीर्यमाणस्नेहो जघन्यस्नेहगुणाभिमुखपरमाणुबद्भाविबंधपराङ्मुखः पूर्वबंधात्प्रच्यवमानः शिखितप्तोदकदौस्थ्यानुकारिणो दुःखस्य परिमोक्षं विगाहत इति।। १०३।। - - - - - - - - - - - ___ इसीमें कहे हुए जीवास्तिकायमें 'अन्तर्गत स्थित अपनेको [ निज आत्माको ] स्वरूपसे अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभाववाला निश्चित करके परस्पर कार्यकारणभूत ऐसे अनादि रागद्वेषपरिणाम और कर्मबन्धकी परम्परासे जिसमें स्वरूपविकार आरोपित है ऐसा अपनेको [निज आत्माको] उस काल अनुभवमें आता देखकर, उस काल विवेकज्योति प्रगट होनेसे [अर्थात् अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभावका और विकारका भेदज्ञान उसी काल प्रगट प्रवर्तमान होनेसे ] कर्मबन्धकी परम्पराका प्रवर्तन करनेवाली रागद्वेषपरिणतिको छोड़ता है, वह पुरुष, वास्तवमें जिसका स्नेह जीर्ण होता जाता है ऐसा, जघन्य स्नेहगुणके सन्मुख वर्तते हुए परमाणुकी भाँति भावी बन्धसे पराङ्मुख वर्तता हुआ, पूर्व बन्धसे छूटता हुआ , अग्नितप्त जलकी दुःस्थिति समान जो दुःख उससे परिमुक्त होता है।। १०३।। १। जीवास्तिकायमें स्वयं [ निज आत्मा] समा जाता है, इसलिये जैसा जीवास्तिकायके स्वरूपका वर्णन किया गया है वैसा ही अपना स्वरूप है अर्थात् स्वयं भी स्वरूपसे अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभाववाला है। २। रागद्वेषपरिणाम और कर्मबन्ध अनादि कालसे एक-दूसरेको कार्यकारणरूप हैं। ३। स्वरूपविकार = स्वरूपका विकार। [ स्वरूप दो प्रकारका है: [१] द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत स्वरूप, और [२] पर्यायार्थिक नयके विषयभूत स्वरूप। जीवमें जो विकार होता है वह पर्यायार्थिक नयके विषयभूत स्वरूपमें होता है, द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत स्वरूपमें नहीं; वह [ द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत ] स्वरूप तो सदैव अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यात्मक है।] ४। आरोपित = [ नया अर्थात औपाधिकरूपसे] किया गया। [ स्फटिकमणिमें औपाधिकरूपसे होनेवाली रंगित __ दशाकी भाँति जीवमें औपाधिकरूपसे विकारपर्याय होती हुई कदाचित् अनुभवमें आती है।] ५। स्नेह = रागादिरूप चिकनाहट। ६। स्नेह = स्पर्शगणकी पर्यायरूप चिकनाहट। [ जिस प्रकार जघन्य चिकनाहटके सन्मुख वर्तता हुआ परमाणु भावी बन्धसे पराङ्मुख है, उसी प्रकार जिसके रागादि जीर्ण होते जाते हैं ऐसा पुरुष भावी बन्धसे पराङ्मुख ७। दुःस्थिति = अशांत स्थिति [अर्थात् तले-उपर होना, खद्बद् होना]: अस्थिरता; खराब-बुरी स्थिति। [जिस प्रकार अग्नितप्त जल खबद् होता है, तले-उपर होता रहता है, उसी प्रकार दुःख आकुलतामय है।] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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