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________________ कहानजैनशास्त्रमाला ] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन अधर्मस्वरूपाख्यानमेतत् । यथा धर्म: प्रज्ञापितस्तथाधर्मोपि प्रज्ञापनीयः । अयं तु विशेषः । स गतिक्रियायुक्तानामुदकवत्कारणभूत; एषः पुनः स्थितिक्रियायुक्तानां पृथिवीवत्कारणभूतः । यथा पृथिवी स्वयं पूर्वमेव तिष्ठंती परमस्थापयंती च स्वयेव तिष्ठतामश्वादीना मुदासीना- विनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णाति तथाऽधर्माऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णातीति।।८६।। जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी । दोविय मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य ।। ८७ ।। जातमलोकलोकं ययोः सद्भावतश्च गमनस्थिती। द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च ।। ८७ ।। [ १३७ टीका:- यह, अधर्मके स्वरूपका कथन है । जिस प्रकार धर्मका प्रज्ञापन किया गया, उसी प्रकार अधर्मका भी प्रज्ञापन करने योग्य है। परन्तु यह [ निम्नोक्तानुसार ] अन्तर है: वह [-धर्मास्तिकाय ] गतिक्रियायुक्तको पानीकी भाँति कारणभूत है और यह [ अधर्मास्तिकाय ] स्थितिक्रियायुक्तको पृथ्वीकी भाँति कारणभूत है । जिस प्रकार पृथ्वी स्वयं पहलेसे ही स्थितिरूप [ - स्थिर ] वर्तती हुई तथा परको स्थिति [ - स्थिरता ] नहीं कराती हुई, स्वयमेव स्थितिरूपसे परिणमित होते हुए अश्वादिकको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह करती है, उसी प्रकार अधर्म [ अधर्मास्तिकाय ] भी स्वयं पहलेसे ही स्थितिरूपसे वर्तता हुआ और परको स्थिति नहीं कराता हुआ, स्वयमेव स्थितिरूप परिणमित होते हुए जीव- पुद्गलोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह करता है ।। ८६ । गाथा ८७ अन्वयार्थः- [ गमनस्थिती ] [ जीव- पुद्गलकी] गति-स्थिति [च] तथा [ अलोकलोकं ] अलोक और लोकका विभाग, [ ययोः सद्भावतः ] उन दो द्रव्योंके सद्भावसे [ जातम् ] होता है। [च] और [ द्वौ अपि ] वे दोनों [ विभक्तौ ] विभक्त, [ अविभक्तौ ] अविभक्त [ च ] और [ लोकमात्रौ ] लोकप्रमाण [ मतौ ] कहे गये हैं। धर्माधरम होवाथी लोक- अलोक ने स्थितिगति बने; ते उभय भिन्न-अभिन्न छे ने सकळलोकप्रमाण छे । ८७ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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