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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला ] षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन स खलु जीवो महात्मा नित्यचैतन्योपयुक्तत्वादेक एव, ज्ञानदर्शनभेदाद्विविकल्प:, कर्मफलकार्यज्ञानचेतनाभेदेन लक्ष्यमाणत्वात्रिलक्षण: ध्रौव्योत्पादविनाशभेदेन वा चतसृषु गतिषु चंक्रमणत्वाच्चतुश्चंक्रमणः, पञ्चभिः पारिणामिकौदयिकादिभिरग्रगुणैः प्रधानत्वात्पञ्चाग्रगुणप्रधानः, चतसृषु दिक्षूर्ध्वमधश्चेति भवांतरसंक्रमणषट्केनापक्रमेण युक्तत्वात्षट्कापक्रमयुक्तः, असितनास्त्यादिभिः सप्तभङ्गैः सद्भावो यस्येति सप्तभङ्गसद्भावः अष्टानां कर्मणां गुणानां वा आश्रयत्वादष्टाश्रयः, नवपदार्थरूपेण वर्तनान्नवार्थः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसाधारणप्रत्येक-द्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियरूपेषु दशसु स्थानेषु गतत्वादृशस्थानग इति ।। ७१-७२ ।। पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं सव्वदो मुक्को । उड्डुं गच्छदि सेसा विदिसावज्जं गदिं जंति ।। ७३ ।। " टीका:- वह जीव महात्मा [१] वास्तवमें नित्यचैतन्य - उपयोगी होनेसे 'एक ही है; [२] ज्ञान और दर्शन ऐसे भेदोंके कारण 'दो भेदवाला' है; [३] कर्मफलचेतना, कार्यचेतना और ज्ञानचेतना ऐसे भेदों द्वारा अथवा ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश ऐसे भेदों द्वारा लक्षित होनेसे ' त्रिलक्षण [ तीन लक्षणवाला ]' है; [ ४ ] चार गतियोंमें भ्रमण करता है इसलिये 'चतुर्विध भ्रमणवाला' है; [५] पारिणामिक औदयिक इत्यादि पाँच मुख्य गुणों द्वारा प्रधानता होनेसे — पाँच मुख्य गुणोंसे प्रधानतावाला' है; [६] चार दिशाओंमें, ऊपर और नीचे इस प्रकार षड्विध भवान्तरगमनरूप अपक्रमसे युक्त होनेके कारण [ अर्थात् अन्य भवमें जाते हुए उपरोक्त छह दिशाओंमें गमन होता है इसलिये ] ‘छह अपक्रम सहित' है; [ ७ ] अस्ति, नास्ति आदि सात भंगो द्वारा जिसका सद्भाव है ऐसा होनेसे ‘सात भंगपूर्वक सद्भाववान' है; [८] [ ज्ञानावरणीयादि ] आठ कर्मोंके अथवा [ सम्यक्त्वादि ] आठ गुणोंके आश्रयभूत होनेसे 'आठके आश्रयरूप' है; [९] नव पदार्थरूपसे वर्तता है इसलिये ‘नव–अर्थरूप' है; [१०] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, साधारण वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियरूप दश स्थानोमें प्राप्त होनेसे 'दशस्थानगत' है ।। ७१ ७२ ।। प्रकृति-स्थिति-परदेश- अनुभवबंधथी परिमुक्तने गति होय ऊंचे; शेषने विदिशा तजी गति होय छे । ७३ । [ ११७ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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