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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ७६ ] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द ज्ञानोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत्। तत्राभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानं कुमतिज्ञानं कुश्रुत-ज्ञानं विभङ्गज्ञानमिति नामाभिधानम्। आत्मा ह्यनंतसर्वात्मप्रदेशव्यापिविशुद्ध ज्ञानसामान्यात्मा। स खल्वनादिज्ञानावरणकर्मावच्छन्नप्रदेशः सन्, यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रि-यानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदाभिनिबोधिकज्ञानम्, यत्तदावरणक्षयोपशमादनिन्द्रियावलंबाच मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तत् श्रुतज्ञानम्, यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदवधिज्ञानम् , यत्तदा-वरणक्षयोपशमादेव ------------------------------------------------------------------------- टीका:- यह, ज्ञानोपयोगके भेदोंके नाम और स्वरूपका कथन है। वहाँ, [१] आभिनिबोधिकज्ञान, [२] श्रुतज्ञान, [३] अवधिज्ञान, [४] मनःपर्ययज्ञान, [५] केवलज्ञान, [६] कुमतिज्ञान, [७] कुश्रुतज्ञान और [८] विभंगज्ञान-इस प्रकार [ ज्ञानोपयोगके भेदोंके] नामका कथन है। [अब उनके स्वरूपका कथन किया जाता है:-] आत्मा वास्तवमें अनन्त, सर्व आत्मप्रदेशोंमें व्यापक, विशुद्ध ज्ञानसामान्यस्वरूप है। वह [आत्मा] वास्तवमें अनादि ज्ञानावरणकर्मसे आच्छादित प्रदेशवाला वर्तता हुआ, [१] उस प्रकारके [अर्थात् मतिज्ञानके] आवरणके क्षयोपशमसे और इन्द्रिय-मनके अवलम्बनसे मूर्त-अमूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषत: अवबोधन करता है वह आभिनिबोधिकज्ञान है, [२] उस प्रकारके [अर्थात् श्रुतज्ञानके] आवरणके क्षयोपशमसे और मनके अवलम्बनसे मूर्त-अमूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह श्रुतज्ञान है, [३] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही मूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह अवधिज्ञान है, [४] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही परमनोगत [-दूसरोंके मनके साथ सम्बन्धवाले ] मूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह मनःपर्ययज्ञान है, [५] समस्त आवरणके अत्यन्त क्षयसे, केवल ही [ -आत्मा अकेला ही ], मूर्त-अमूर्त द्रव्यका सकलरूपसे १। विकलरूपसे = अपूर्णरूपसे; अंशतः। २। विशेषतः अवबोधन करना = जानना। [ विशेष अवबोध अर्थात विशेष प्रतिभास सो ज्ञान है।] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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