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________________ નાટક સમયસારના પદ ४६८ અજ્ઞાની જીવ વિષયનો ભોક્તા છે જ્ઞાની નથી, સવૈયા એકત્રીસા) जगवासी अग्यानी त्रिकाल परजाइ बुद्धी, सो तौ विषै भोगनिकौ भोगता कहायौ है। समकिती जीव जोग भोगसौं उदासी तातें, सहज अभोगता गरंथनिमैं गायौ है।। याही भांति वस्तुकी व्यवस्था अवधारि बुध, परभाउ त्यागि अपनौ सुभाउ आयौ है। निरविकलप निरुपाधि आतम अराधि, साधि जोग जुगति समाधिमैं समायौ है।।७।। જ્ઞાની કર્મના કર્તા-ભોક્તા નથી એનું કારણ. (સવૈયા એકત્રીસા) चिनमुद्राधारी ध्रुव धर्म अधिकारी गुन, रतन भंडारी अपहारी कर्म रोगको । प्यारौ पंडितनकौ हुस्यारौ मोख मारगमैं, न्यारौ पुदगलसौं उज्यारौ उपयोगकौ। जानै निज पर तत्त रहै जगमैं विरत्त, गहै न ममत्त मन वच काय जोगको। ता कारन ग्यानी ग्यानावरनादि करमको, करता न होइ भोगता न होइ भोगकौ ।।८।। भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः । अज्ञानादेव भोक्ताऽयं तद्भावादवेदकः ।।४।। अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः । इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता ।।५।।
SR No.008393
Book TitleKalashamrut 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages491
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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