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________________ योगसार-प्राभृत द्रव्यों को लेकर निमित्त-नैमित्तिकपना घटित नहीं करना चाहिए - क्योंकि दो द्रव्यों में निमित्त नैमित्तिकपना घटित होता ही नहीं, मात्र वर्तमानकालीन पर्यायों में ही घटित होता है। कर्म को जीव का कर्ता मानने पर आपत्ति - आत्मानं कुरुते कर्म यदि कर्म तदा चेतनाय फलं दत्ते भुङ्क्ते वा चेतनः कथम् ।।१२०।। अन्वय :- यदि कर्म आत्मानं कुरुते तदा कर्म चेतनाय फलं कथं दत्ते ? वा चेतन: (कर्मफलं) कथं भुङ्क्ते ? सरलार्थ :- यदि कर्म (अपने उपादान से) स्वयं को करता है तो फिर कर्म, चेतन-आत्माको फल कैसे देता है? और चेतनात्मा उस फलको कैसे भोगता है? – ये दोनों बातें फिर बनती ही नहीं। भावार्थ:-पिछले श्लोक में यह बतलाया गया है कि सचेतन जीव और अचेतन द्रव्य कर्म में परस्पर कार्य-कारण भाव नहीं है। यदि दोनों में कार्य-कारण भाव माना जाय - जीव को अपने उपादान से कर्म का और कर्म को अपने उपादान से जीव का कर्ता माना जाय तो इन दोनों ही विकल्पों में यह प्रश्न पैदा होता है कि कर्म जीव को फल कैसे देता है और जीव उसके फल को कैसे भोग सकता है? उपादान की दृष्टि से दोनों के एक होने पर फलदाता और फलभोक्ता की बात नहीं बनती। इनमें से एक विकल्प का उल्लेख करके यहाँ जो आपत्ति की गयी है वही दूसरे विकल्प का उल्लेख करके ग्रन्थ के द्वितीय अधिकार में श्लोक नं. ४८ के द्वारा की गयी है। एक के किये हुए कर्म के फल को दूसरे के द्वारा भोगने पर आपत्ति - परेण विहितं कर्म परेण यदि भुज्यते । न कोऽपि सुख-दुःखेभ्यस्तदानीं मुच्यते कथम् ।।१२१।। अन्वय :- परेण (जीवेन) विहितं कर्म यदि परेण (जीवेन) भुज्यते, तदानीं कोऽपि (जीव:) सुख-दुःखेभ्यः कथं मुच्यते ? (न मुच्यते)। सरलार्थ :- परजीव के किये हुए कर्म को अर्थात् कर्म के फल को यदि दूसरा जीव भोगता है तो फिर कोई भी जीव सुख-दुःख से अर्थात् संसार से कैसे मुक्त हो सकता है? अर्थात् कोई भी जीव संसार से मुक्त नहीं हो सकता। अतः प्रत्येक जीव अपने किये हुए कर्म-फल का ही भोक्ता है; यह परम सत्य है। भावार्थ :- यहाँ करे कोई और भरे कोई' के सिद्धान्त का उल्लेख करके उसे दूषित ठहराया गया है - लिखा है कि यदि एक के किये हुए कर्म का फल दूसरा भोगता है तो कोई भी जीव सांसारिक सुख-दुःख से कभी मुक्त नहीं हो सकता; क्योंकि हम अपने सुख-दुःखदाता पूर्वबद्ध कर्म का निरोध तो कर सकते हैं; परन्तु दूसरे करें उन्हें हम कैसे रोक सकते हैं? जब उन दूसरों के किये कर्म का फल भी हमें भोगना पड़े तो हमारा सांसारिक सुख-दुःख से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/96]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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