SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आस्रव अधिकार सरलार्थ :- ‘ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, मोह-राग-द्वेषादि भावकर्म एवं शरीरादि नोकर्मरूप वस्तुओं का पहले अर्थात् भूतकाल में मैं स्वामी था, इन वस्तुओं का वर्तमानकाल में मैं स्वामी हूँ और आगे भविष्यकाल में मैं स्वामी होऊँगा'; मिथ्यादृष्टि की यह बुद्धि कर्मों का आस्रव करानेवाली भावार्थ :- इस श्लोक के भाव को स्पष्ट जानने के लिए समयसार गाथा २१ एवं २२ तथा इनकी हिन्दी टीका अत्यन्त उपयोगी है, उसे अवश्य देखें । इन गाथाओं का मात्र अर्थ यहाँ दे ___“(जो पुरुष अपने से अन्य परद्रव्यों में) यह मेरा पहले था, इसका मैं भी पहले था, यह मेरा भविष्य में होगा, मैं भी इसका भविष्य में होऊँगा - ऐसा झूठा आत्मविकल्प करता है, वह मूढ़ है - मोही है - अज्ञानी है और जो पुरुष परमार्थ वस्तुस्वरूप को जानता हुआ ऐसा झूठा विकल्प नहीं करता वह मूढ़ नहीं ज्ञानी है।" ___भूतकाल के विपरीत परिणामों से जिसे मिथ्यात्व कर्म का बन्ध हो गया है और वर्तमानकाल में व भविष्यकाल के लिये भी जो बाधक सिद्ध हो रहा है; उस मिथ्यात्व का क्षय करने हेतु निज शुद्धात्मा का आश्रयरूप पुरुषार्थ करना ही एकमात्र उपाय है, अन्य कोई नहीं। मिथ्यात्व ही आस्रव का प्रमुख कारण - चेतने ऽचेतने द्रव्ये यावदन्यत्र वर्तते । स्वकीयबुद्धितस्तावत्कर्मागच्छन् न वार्यते ।।११६।। अन्वय :- यावत् (अज्ञानी जीव:) चेतने अचेतने द्रव्ये स्वकीयबुद्धितः वर्तते तावत् कर्मआगच्छन् न वार्यते। सरलार्थ :- जब तक अज्ञानी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव, चेतन अथवा अचेतन किसी भी परद्रव्य में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति करता है अर्थात् पर में अपनत्व की मान्यता रखता है तबतक अष्ट कर्मों के आस्रव को रोका नहीं जा सकता। भावार्थ :- पर में अपनत्व रखते हुए अज्ञानी जीव २८ मूलगुणों का पालन करे, कठिन से कठिन तपश्चरण करे, अन्य कोई महादुर्लभ पुण्य-परिणाम करे, परोपकार करता रहे; तथापि पर में अपनत्वरूप/विपरीत मान्यतारूप मिथ्यात्व से अनंत संसार के कारण ऐसे कर्म का आस्रव रोकना असम्भव ही है। मिथ्यात्व के अभावपूर्वक यथार्थ श्रद्धारूप सम्यक्त्व की प्राप्ति से धर्म का प्रारंभ होता है। नय-सापेक्ष आत्मा का कर्तापना - शुभाशुभस्य भावस्य कर्तात्मीयस्य वस्तुतः। कर्तात्मा पुनरन्यस्य भावस्य व्यवहारतः ।।११७।। अन्वय :- आत्मा वस्तुत: आत्मीयस्य शुभ-अशुभस्य भावस्य कर्ता (अस्ति)। पुनः [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/93]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy