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________________ अजीव अधिकार अन्वय :- कल्मष-उदयतः जीवस्य यः भावः प्रजायते तस्य भावस्य सः (जीवः) कर्ता (भवति), कर्मणः (कर्ता) कदाचन न (भवति)। सरलार्थ :- मिथ्यात्वादि पापकर्म के उदय से जीव में जो मोह राग-द्वेषरूप विकारी परिणाम उत्पन्न होते हैं, उन भावों का वह जीव कर्ता होता है; परन्तु ज्ञानावरणादि पुद्गलमय द्रव्यकर्म का कर्ता वह जीव कभी भी नहीं होता। ___ भावार्थ :- समयसार में इसी अर्थ का ज्ञान करानेवाली ८२वीं गाथा है। इसकी टीका में अमृतचंद्राचार्य ने जीव को कदाचित् कर्ता बताया है और उसका भाव श्री जयचंदजी छाबडा ने उसके भावार्थ में मार्मिक शब्दों में इसप्रकार स्पष्ट किया है – “जीव के परिणाम के और पुद्गल के परिणाम के परस्पर मात्र निमित्त-नैमित्तिकपना है तो भी परस्पर कर्ताकर्मभाव नहीं है । पर के निमित्त से जो अपने भाव हुए उनका कर्ता तो जीव को अज्ञान दशा में कदाचित् कह भी सकते हैं; परन्तु जीव, पर-भाव का कर्ता कदापि नहीं है।" कर्मो की विभिन्नता पुद्गलकृत हैं - विविधाः पुद्गला: स्कन्धा: संपद्यन्ते यथा स व य म कर्मणामपि निष्पत्तिरपरैरकृता तथा।।८५।। अन्वय :- यथा विविधाः पुद्गलाः स्वयं स्कन्धाः संपद्यन्ते तथा (एव) कर्मणां अपि निष्पत्तिः अपरैः अकृता (भवति)। सरलार्थ :- जिसप्रकार पुद्गल स्वयं अनेक प्रकार के स्कन्धरूप बन जाते हैं, उसीप्रकार अनेक प्रकार के कर्मों की निष्पत्ति भी दूसरों के द्वारा किये बिना ही अर्थात् स्वतः ही होती है। भावार्थ:- ऐसा ही भाव पंचास्तिकाय संग्रह गाथा ६६ और उसकी टीका में उदाहरण सहित स्पष्ट किया है, जो इसप्रकार है : "जह पोग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहिं खंधणिव्वत्ती। अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि।। गाथार्थ :- जिसप्रकार पुद्गलद्रव्यों की अनेक प्रकार की स्कंधरचना पर के द्वारा किये बिना होती दिखाई देती है, उसीप्रकार कर्मों की बहुप्रकारता परसे अकृत जानो। टीका :- कर्मों की विचित्रता (बहुप्रकारता) अन्य द्वारा नहीं की जाती, ऐसा यहाँ कहा है। जिसप्रकार अपने को योग्य चन्द्र-सूर्य के प्रकाश की उपलब्धि होने पर, संध्या-बादल-इन्द्रधनुषप्रभामण्डल इत्यादि अनेक प्रकार से पुद्गलस्कंधभेद अन्य कर्ता की अपेक्षा के बिना ही उत्पन्न होते हैं, उसीप्रकार अपने को योग्य जीव-परिणाम की उपलब्धि होने पर, ज्ञानावरणादि अनेक प्रकार के कर्म भी अन्य कर्ता की अपेक्षा के बिना ही उत्पन्न होते हैं। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/71]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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