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________________ अजीव अधिकार है ना? उत्तर - भाई ! व्यवहार से एक द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के परिवर्तन में निमित्त होता है, यह कहकर निमित्त का मात्र ज्ञान कराया है - कोई किसी का कुछ कर सकता है, इसका समर्थन नहीं किया है। व्यवहार से कर सकता है - ऐसा उपचार से कहा जाता है - इसका अर्थ निश्चय से नहीं कर सकता है; तथापि कर सकने का कथन लोक-व्यवहार में चलता है; ऐसा समझना चाहिए। प्रश्न - धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य अनादि-अनत शुद्ध है और शुद्ध ही परिणमन कर रहे हैं, वे एक-दूसरे का कुछ नहीं कर सकते; परंतु अनंत संसारी जीव तथा अनंतानंत पुद्गल स्कंध जो विभावरूप परिणमन कर रहे हैं, वे तो एक-दूसरे का अच्छा-बुरा कर सकते हैं ना? उत्तर - आपका यह सोचना आगम एवं युक्ति से भी खण्डित होता है; इसलिए अयोग्य है। यदि ऐसा ही भाव ग्रन्थकार का होता तो वे वैसा स्पष्ट कहते, उनको कहने में क्या भय था। तथा विवेकी मनुष्यों को रात-दिन स्पष्ट समझ में भी आ ही रहा है कि अनेक लोग किसी का अच्छा करना चाहते हैं; लेकिन उनके चाहने पर और अति दक्षतापूर्वक अच्छा करने का प्रयास करने पर भी अच्छा नहीं कर पा रहे हैं। इसके विपरीत अनेक लोग अनेक बार अपने शत्रु का अहित करना चाहते हैं तथा प्रयास भी करते ही रहते हैं, तो भी शत्रु का बुरा नहीं कर पाते हैं। पुद्गल के चार भेद और उनका स्वरूप - स्कन्धो देशः प्रदेशोऽणुश्चतुर्धा पुद्गलो मतः। समस्तमर्धमर्धार्धमविभागमिमं विदुः ।।७८।। अन्वय :- स्कन्धः, देशः, प्रदेशः, अणुः (इति) पुद्गलः चतुर्धा मतः । इमं समस्तम् अर्धम् अर्धार्धम् अविभागं (च) विदुः। सरलार्थ :- पुद्गलद्रव्य स्कन्ध, देश, प्रदेश और अणु इसतरह चार प्रकार का माना गया है। इस चतुर्विध समस्त पुद्गल को क्रमशः सकल, अर्ध, अर्धार्ध और अविभागी कहते हैं। भावार्थ :- भेद से होनेवाले पुद्गलविकल्पों (पुद्गलभेदों) का पंचास्तिकाय संग्रह गाथा ७५ की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने जो वर्णन किया है उसका तात्पर्य निम्नानुसार है :- अनंत परमाणु पिंडात्मक घटपटादिरूप जो विवक्षित सम्पूर्ण वस्तु उसे “स्कन्ध” संज्ञा है। भेद द्वारा उसके जो पदगल विकल्प होते हैं, वे निम्नोक्त दष्टान्तानसार समझना। मान लो कि १६ परमाणुओं से निर्मित एक पुद्गलपिंड है और वह टूटकर उसके टुकडे होते हैं। वहाँ १६ परमाणुओं के पूर्ण पिण्ड को स्कन्ध माने तो आठ परमाणुओंवाला उसका अर्धभागरूप टुकडा वह देश है। चार परमाणुओंवाला उसका चतुर्थभागरूप टुकडा वह “प्रदेश” है और अविभागी [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/67]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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