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________________ अजीव अधिकार ६५ पूज्यपाद ने उपकार का अर्थ निमित्त ही लिया है। जैसे - निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृ व्यपदेशः। प्रश्न - धर्म और अधर्म द्रव्य मात्र जीव-पुद्गलों का ही उपकार क्यों करते हैं, अन्य चार द्रव्यों का क्यों नहीं? उत्तर - जो गमन और स्थिर रहने का कार्य स्वयं करते हैं, उनका ही तो उपकार करेंगे। अन्य धर्मादि चार द्रव्य गमन करते ही नहीं अर्थात् नित्य स्थित हैं, उनका उपकार कैसे कर पायेंगे? जैसे समझनेवाले को ही समझाया जा सकता है, नहीं समझनेवाले को समझाना संभव ही नहीं है; अतः समझानेवाला मात्र समझनेवालों को ही समझने में निमित्त हो सकता है। उसीप्रकार क्रियावतीशक्ति के कारण मात्र जीव व पुद्गल ही गति-स्थिति कर सकते हैं, अतः धर्म-अधर्म द्रव्य इन दो ही द्रव्यों की गति-स्थिति में निमित्त होते हैं/उपकार करते हैं। प्रश्न - आकाश और काल द्रव्य सर्व द्रव्यों का उपकार करते हैं; ऐसा अर्थ कैसे किया? श्लोक में तो ऐसे शब्द आये नहीं। उत्तर - आकाश और कालद्रव्य किन द्रव्यों का उपकार करते हैं - इसका उल्लेख श्लोक में नहीं है, अतः अन्य शास्त्रों के आधार से जो आगमसम्मत व वस्तुव्यवस्था के अनुरूप अर्थ है, वही किया है। जीव का उपकार - संसारवर्तिनोऽन्योन्यमुपकारं वितन्वते। मुक्तास्तद्व्यतिरेकेण न कस्याप्युपकुर्वते ।।५।। अन्वय :- संसारवर्तिनः (जीवा:) अन्योन्यं उपकारं वितन्वते । मुक्ताः (जीवाः) तद् व्यतिरेकेण कस्यापि न उपकुर्वते। सरलार्थ:-संसारवर्ती /राग-द्वेष विकारों से अथवा आठ कर्मों से सहित जीव परस्पर एकदूसरे का उपकार करते हैं अर्थात् सुख-दुख, जीवन-मरण आदि में परस्पर निमित्त होते हैं। मुक्त/ सिद्ध जीव संसार से भिन्न होने के कारण किसी का भी उपकार नहीं करते हैं। भावार्थ :- मुक्त/सिद्ध जीव के राग-द्वेष परिणामों का अभाव होने के कारण वे वीतरागी बन गये हैं, अतः उन्हें किसी जीव के उपकार का भाव आ ही नहीं सकता। इसकारण वे किसी को भी निमित्त नहीं बनते, यह बात यद्यपि सही है; तथापि दूसरी यह भी एक विवक्षा है कि संसारीजीव द्वारा उन मुक्त जीवों का ध्यान करने पर सिद्ध जीवों में निमित्तपना बन सकता है। इसी प्रकार का भाव समयसार ग्रंथ की मंगलाचरण की टीका लिखते समय अमृतचंद्राचार्य ने स्पष्ट किया है - ___ “वे सिद्ध भगवान सिद्धत्व के कारण साध्य जो आत्मा उसके प्रतिछंद के स्थान पर हैं, जिनके स्वरूप का संसारी भव्य जीव चिंतवन करके उनके समान अपने स्वरूप को ध्याकर उन्हीं के समान हो जाते हैं और चारों गतियों से विलक्षण पंचमगति/मोक्ष को प्राप्त करते हैं।" संसारी जीव के [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/65]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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