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________________ योगसार प्राभृत ६० करते कहते हैं - "द्रव्य का उत्पाद या विनाश नहीं हैं; सद्भाव है । उसी की पर्यायें विनाश, उत्पाद और ध्रुवता करती है।" जिनेन्द्रकथित वस्तुव्यवस्था में अपेक्षाओं का मधुर सम्मेलन है। अपेक्षा बदलते ही अर्थ बदल जाता है। प्रवचनसार शास्त्र में गाथा ९९ से १०४ पर्यंत ६ गाथाओं में उत्पाद आदि का कथन अलगअलग अपेक्षाओं से आया है, जो मूलतः पठनीय है। प्रवचनसार के ज्ञेयाधिकार को आचार्य जयसेन ने सम्यक्त्वाधिकार कहा है; क्योंकि वस्तुव्यवस्था का स्पष्ट यथार्थ बोध हुए बिना जीव सम्यग्दर्शन का अधिकारी नहीं हो सकता। इससे जिनधर्म में वस्तु-व्यवस्था के ज्ञान को विशेष महत्व दिया गया है, यह स्पष्ट समझ में आता है । द्रव्य के साथ गुण - पर्यायों का अविनाभावी संबंध — किंचित् संभवति द्रव्यं न विना गुण - पर्ययैः । संभवन्ति विना द्रव्यं न गुणा न च पर्ययाः ।। ६७ ।। अन्वय :- किंचित् द्रव्यं गुण- पर्ययैः विना न संभवति । गुणाः च पर्यायाः द्रव्यं विना न संभवन्ति । सरलार्थ :- - कोई भी द्रव्य, गुण तथा पर्यायों के बिना नहीं हो सकता और गुण अथवा पर्यायें द्रव्य के बिना नहीं हो सकते। भावार्थ :- पंचास्तिकाय की गाथा १२ एवं १३ को आचार्य अमितगति ने इस श्लोक में समेटने का प्रयास किया है। आचार्य कुंदकुंद एवं आचार्य अमितगति के काल में एक हजार वर्ष का अन्तराल होने पर भी आचार्यों में न मतभेद है न कथन में अस्पष्टता है। इससे जिनवाणी की परम्परा कैसी अक्षुण्ण और अबाधित चली आ रही है, इसका स्पष्ट बोध होता है। धर्मादि द्रव्यों की प्रदेश व्यवस्था - धर्माधर्मैकजीवानां प्रदेशानामसंख्यया । अवष्टब्धो नभोदेशः प्रदेशः परमाणुना । । ६८।। अन्वय :- परमाणुना अवष्टब्धः नभोदेशः प्रदेशः, धर्म-अधर्म - एक जीवानां प्रदेशानां (संख्या) असंख्यया । सरलार्थ :- परमाणु से आकाश का एक प्रदेश घिरा हुआ है। धर्म, अधर्म और एक जीव, इन द्रव्यों के अर्थात् इन प्रत्येक द्रव्य के असंख्यात प्रदेशों से आकाश का स्थान अवरुद्ध अर्थात् घिरा हुआ है। भावार्थ :- एक परमाणु अथवा कालाणु से व्याप्त आकाश के क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं । कालाणु एवं पुद्गल परमाणु का आकार ( आकाश का क्षेत्र) समान ही होता है; अतः दोनों को मात्र एकप्रदेशी ही माना गया है। धर्म, अधर्म द्रव्य तथा एक जीव द्रव्य के प्रदेश असंख्यात होते हैं । [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/60]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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