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________________ अजीव अधिकार प्रश्न अवगाह देने का काम तो मात्र आकाश का है और इस श्लोक में तो सभी द्रव्य एकदूसरे को अवगाह देते हैं; ऐसा कहा है; यह कैसे ? - उत्तर - आपका प्रश्न उचित है । उपकार के प्रकरण में प्रत्येक द्रव्य का भिन्न-भिन्न निमित्तसापेक्ष कार्य बताते समय व्यवहारनय से अवगाह देना आकाश का काम बताया है। यहाँ प्रत्येक द्रव्य एकदूसरे को जगह / अवगाह देते हैं, यह स्पष्ट किया है, अतः विरोध नहीं है । अपेक्षा लगाकर समझने से समाधान होता है । ५७ सब द्रव्यों में अवगाहनत्व गुण होता है - यह विषय कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २१४-२१५ में आया है । अजीवद्रव्यों का विभाजन एवं मूर्तित्व का लक्षण - अर्मूता निष्क्रियाः सर्वे मूर्तिमन्तोऽत्र पुद्गलाः । रूप- गन्ध-रस-स्पर्श-व्यवस्था मूर्तिरुच्यते ।। ६२ ।। अन्वय :- अत्र पुद्गलाः मूर्तिमन्तः, ( शेषाः) सर्वे (अजीवा:) अमूर्ता : निष्क्रियाः सन्ति । रूप- गन्ध-रस - स्पर्श-व्यवस्था मूर्तिः उच्यते । सरलार्थ :- धर्मादि इन पाँचों अजीव द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है। शेष धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल ये चारों द्रव्य अमूर्तिक और निष्क्रिय हैं। वर्ण-गंध-रस-स्पर्श की व्यवस्था को मूर्तिक कहते हैं । में कहा भावार्थ :- मूर्तिक को रूपी भी कहते हैं । जैसे तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय के सूत्र ५ है - रूपिणः पुद्गलाः । वैसे तो रूप शब्द का सामान्य अर्थ वर्ण है; लेकिन रूपी शब्द का अर्थस्पर्श, रस, गंध और वर्ण सहित द्रव्य होता है। पुद्गल मूर्तिक तो है ही और वह क्रियावान भी है । एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करने की शक्ति को क्रिया कहते हैं । पुद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करता है अतः क्रियावान है । स्कन्धरूप पुद्गल में स्पर्शादि की पर्यायें इसप्रकार होती है - स्पर्श के आठ भेद - कोमल, कठोर, हल्का, भारी, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । रस के पाँच भेद - खट्ठा, मीठा, कड़वा, कसायला, चरपरा । गंध के दो भेद - सुगंध और दुर्गंध । वर्ण के पाँच भेद - लाल, पीला, काला, नीला, सफेद । परमाणुरूप पुद्गल में उपर्युक्त २० में से मात्र पाँच ही पर्यायें होती हैं - जैसे आठ स्पर्श में से २ स्पर्श, पाँच रस में से एक रस, दो गंध में से एक गंध, पाँच वर्ण में से एक वर्ण । पंचास्तिकाय संग्रह गाथा ८१ में भी कहा है कि - " वह परमाणु एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक गंधवाला, दो स्पर्शवाला है; शब्द का कारण है, अशब्द है और स्कन्ध के भीतर हो, तथापि परिपूर्ण स्वतंत्र द्रव्य है, ऐसा जानो।" [C/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/57]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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