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________________ योगसार-प्राभृत जो भावलिंगी वीतरागी मुनिराज हैं, वे देशच्छेद की कल्पना करनेवाले द्रव्यलिंगपने का स्वीकार नहीं करते; अतः श्लोक में वे दूसरे मार्ग से गमन नहीं करते, ऐसा अर्थ व्यक्त किया है । जन्म तथा जीवन की सफलता - ३२२ (शार्दूलविक्रीडित) दृष्ट्वा बाह्यमनात्मनीनमखिलं मायोपमं नश्वरं ये संसार - महोदधिं बहुविधक्रोधादिनक्राकुलम् । तीर्त्वा यान्ति शिवास्पदं शममयं ध्यात्वात्मतत्त्वं स्थिरं अन्वय : - तेषां जन्म च जीवितं च सफलं स्वार्थैकनिष्ठात्मनाम् ।। ५३८ ।। ये अनात्मनीनं मायोपमं (तथा) नश्वरं अखिलं बाह्यं (संसारम् ) दृष्ट्वा स्थिरं आत्मतत्त्वं ध्यात्वा बहुविध-क्रोधादिनक्राकुलं संसार-महोदधिं तीर्त्वा शममयं शिवास्पदं यान्ति तेषां च स्वार्थैकनिष्ठात्मनां जन्म जीवितं च सफलम् (अस्ति) । सरलार्थ :- जो महामानव सारे बाह्य जगत को अनात्मीय, मायारूप एवं नश्वर देखकर - जानकर स्थिर (ध्रुव) निजशुद्धात्म तत्त्व का ध्यानकर अनेक प्रकार के क्रोधादि कषायरूप मगरों से भरे हुए संसार-समुद्र को तिरकर अनंत-अव्याबाध सुखमय मोक्षपद को प्राप्त करते हैं, उन आत्मीय स्वार्थ की साधना में एकनिष्ठा रखनेवालों का ही जन्म और जीवन सफल है। ग्रंथ तथा ग्रंथकार की प्रशस्ति - (मन्द्राकान्ता) दृष्ट्वा सर्वं गगननगर- स्वप्न - मायोपमानं निःसङ्गात्मामितगतिरिदं प्राभृतं योगसारम् । ब्रह्मप्राप्त्यै परममकृतं स्वेषु चात्म-प्रतिष्ठं नित्यानन्दं गलित-कलिलं सूक्ष्ममत्यक्ष- लक्ष्यम् ।।५३९।। अन्वय : - सर्वं गगननगर-स्वप्न-मायोपमानं दृष्ट्वा निःसङ्गात्मा अमितगति: स्वेषु च आत्म-प्रतिष्ठं, गलित-कलिलं, सूक्ष्मं अत्यक्ष- लक्ष्यं नित्यानन्दं (च) परमं अकृतं ब्रह्मप्राप्त्यै इदं योगसारं प्राभृतं (विरचितम्) । सरलार्थ :- आकाश में बादलों से बने हुए नगर के समान, स्वप्न में देखे हुए दृश्यों के सदृश तथा इन्द्रजाल में प्रदर्शित मायामय चित्रों के तुल्य सारे दृश्य जगत् को देखकर निःसंगात्मा अमितगति उस परम ब्रह्म को प्राप्त करने के लिये जो कि आत्माओं में आत्म-प्रतिष्ठा को लिये हुए हैं, कर्ममल से रहित है, सूक्ष्म है, अमूर्तिक है, अतीन्द्रिय है और सदा आनन्दरूप है, यह योगसार प्राभृत रचा है, जो कि योग-विषयक ग्रन्थों में अपने को प्रतिष्ठित करनेवाला योग का प्रमुख ग्रन्थ है, निर्दोष है, अर्थ की दृष्टि से सूक्ष्म है - गम्भीर है - अनुभव का विषय है और नित्यानन्दरूप है इसको पढ़ने-सुनने से सदा आनन्द मिलता है। [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/322]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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