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________________ ३१८ योगसार-प्राभृत यहाँ तो सामान्य ज्ञान में भेद ही नहीं है, इस विषय को मुख्य करके कथन कर रहे हैं। सही देखा जाय तो सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान ऐसे भेद भी नहीं हो सकते; क्योंकि वे भेद भी श्रद्धा की मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वरूप निमित्त की मुख्यता से किये हैं। ये दोनों ज्ञान भी जाननेरूप एक ही तो कार्य करते हैं, अतः ज्ञान में भेद कैसा? ___आचार्य कुंदकुंद ने समयसार गाथा २०४ में तो पाँचों ज्ञान को एक ही कह दिया है। गाथार्थ निम्नानुसार है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान यह एक ही पद है (क्योंकि ज्ञान के समस्त भेद ज्ञान ही है) यह परमार्थ है; (शुद्धनय का विषयभूत ज्ञान सामान्य ही है यह परमार्थ है) जिसे प्राप्त करके आत्मा निर्वाण को प्राप्त होता है। इस गाथा की टीका में तो आचार्य अमृतंचद्र ने मर्म खोला है, जिसका विशेष अंश नीचे दे रहे हैं - "जिसमें से समस्त भेद दूर हुए हैं ऐसे आत्मस्वभावभूत एक ज्ञान का ही अवलम्बन करना चाहिए। उसके अवलम्बन से ही निजपद की प्राप्ति होती है, भ्राति का नाश होता है, आत्मा का लाभ होता है, और अनात्मा का परिहार सिद्ध होता है - (ऐसा होने से) कर्म बलवान नहीं रहते, राग-द्वेष-मोह उत्पन्न नहीं होते, पुनः कर्मास्रव नहीं होता, पुनः कर्मबंध नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्म से मुक्त होकर निर्जरा को प्राप्त होता है, समस्त कर्मों का अभाव होने से साक्षात् मोक्ष होता है।" ___पाठकों से निवेदन है कि वे इस गाथा के आगे-पीछे के प्रकरण को भी जरूर पढ़ें । संस्कृत में तो आचार्यों ने अपना मूल भाव अत्यंत संक्षेप में और मार्मिक शब्दों में प्रगट किया है। आचार्य कुंदकुंद तथा आचार्य अमृतचंद्र के इसी भाव को अल्पशब्दों में आचार्य अमितगति ने इस श्लोक में देने का प्रयास किया है। ज्ञानी का ज्ञेय से भेदज्ञान - विज्ञाय दीपतो द्योत्यं यथा दीपो व्यपोह्यते । विज्ञाय ज्ञानतो ज्ञेयं तथा ज्ञानं व्यपोह्यते ।।५३४।। अन्वय : - यथा दीपत: द्योत्यं (पदार्थ) विज्ञाय दीप: व्यपोह्यते; तथा ज्ञानत: ज्ञेयं विज्ञाय ज्ञानं व्यपोहाते। सरलार्थ:- जिसप्रकार समझदार मनुष्य दीपक से द्योत्य/देखने योग्य, प्रकाश्य अर्थात् प्रकाशित करने योग्य वस्तु को देखकर/जानकर दीपक को प्रकाश्यरूप वस्तु से भिन्न करते हैं; उसीप्रकार ज्ञान से ज्ञेय अर्थात् जाननेयोग्य वस्तु को जानकर ज्ञानी अपने ज्ञान को ज्ञेय से भिन्न करते/जानते हैं। (अर्थात् मैं तो जाननस्वरूप मात्र ज्ञाता हूँ; ऐसा मानते हैं।) भावार्थ :- जीव को जानने की स्वाभाविक सुविधा मिली है; परन्तु अज्ञानी जीव इस सुविधा से अपने ज्ञातास्वरूप को न स्वीकारते हुए ज्ञेयरूप भिन्न परवस्तु को अपना मानकर मिथ्यात्व का [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/318]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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